________________
268
गाथा 85 में स्पष्ट कहा गया है कि जिस गच्छ का साधु वेशधारी आचार्य स्वयं ही स्त्री का स्पर्श करता हो, उस गच्छ को मूलगुणों से भ्रष्ट जाने । गाथा 89-90 में उस गच्छ को मर्यादित कहा गया है, जिसके साधु-साध्वी सोना-चाँदी, धन-धान्य, काँसाताम्बा आदि का परिभोग करते हों तथा श्वेत वस्त्रों को त्यागकर रंगीन वस्त्र धारण करते हों । गाथा 91 में तो यहाँ तक कहा गया है कि जिस गच्छ के साधु, साध्वियों द्वारा लाये गये संयमोपकरण का भी उपयोग करते हैं, वह गच्छ मर्यादाहीन है। इसी प्रकार गाथा 93-94 में अकेले साधु का अकेली साध्वी या अकेली स्त्री के साथ बैठना अथवा पढ़ाना मर्यादा विपरीत माना गया है ।
ग्रंथ में शिथिलाचार का विरोध करते हुए यहाँ तक कहा गया है कि जिस गच्छ साधु क्रय-विक्रय आदि क्रियाए करते हों एवं संयम से भ्रष्ट हो चुके हों, उस गच्छ का दूर से ही परित्याग कर देना चाहिए। गाथा 118-122 में स्वच्छंदाचारी साध्वियों का विवेचन करते हुए कहा गया है कि दैवसिक, रात्रिक आदि आलोचना करने वाली, साध्वी प्रमुखा की आज्ञा में नहीं रहने वाली, बीमार साध्वियों की सेवा नहीं करने वाली, स्वाध्याय, प्रतिक्रमण, प्रतिलेखन आदि नहीं करने वाली साध्वियों का गच्छ निन्दनीय है ।
गच्छाचार-प्रकीर्णक में उल्लिखित शिथिलाचार के ऐसे विवेचन से यह फलित होता है कि गच्छाचार उस काल की रचना है जब मुनि आचार में शिथिलता का प्रवेश हो चुका था और उसका खुलकर विरोध किया जाने लगा। जैन आचार के तहास को देखने से ज्ञात होता है कि विक्रम की लगभग तीसरी-चौथी शताब्दी से मुनियों के आचार में शिथिलता आनी प्रारंभ हो चुकी थी। जैन धर्म में एक और जहाँ तन्त्र-मन्त्र और वाममार्ग के प्रभाव के कारण शिथिलाचारिता का विकास हुआ वहीं दूसरी ओर उसी काल में वनवासी परंपरा के स्थान पर जैनधर्म की श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों परंपराओं में चैत्यवासी परंपरा का विकास हुआ जिसके परिणाम स्वरूप पाँचवीं-छठीं शताब्दी में जैन मुनिसंघ पर्याप्त रूप से सुविधाभोगी बन गया और उस पर हिन्दू परंपरा के मठवासी महन्तों की जीवन शैली का प्रभाव आ गया। शिथिलाचारी प्रवृत्ति का विरोध दिगम्बर परंपरा में सर्वप्रथम आचार्य कुन्दकुन्द के ग्रंथों में इस प्रकार देखा जा सकता है
-