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(1) वे आचार्य जोस्वयंभ्रष्ट हों।
(2) वे आचार्य जो स्वयं भले ही भ्रष्ट नहीं हों किन्तु दूसरों के भ्रष्ट आचरण की उपेक्षा करने वाले हों तथा
(3) वे आचार्यजोजिनभगवान की आज्ञा के विपरीतआचरण करने वाले हों।
ग्रंथ में उन्मार्गगामी और सन्मार्गगामी आचार्य का विवेचन करते हुए कहा गया है कि सन्मार्ग का नाश करने वाले तथा उन्मार्ग पर प्रस्थित आचार्य का संसार परिभ्रमण अनंत होता है। ऐसे आचार्यों की सेवा करने वाला शिष्य अपनी आत्मा को संसार समुद्र में गिराता है। (29-31)। ___किन्तु जो साधक आत्मा सन्मार्ग में आरुढ़ है उनके प्रति वात्सल्य भाव रखना चाहिए तथा औषध आदि से उनकी सेवा स्वयं तो करनी ही चाहिए और दूसरों से भी करवानी चाहिए (35)।
प्रस्तुत ग्रंथ में लोकहित करने वाले महापुरुषों की चर्चा करते हुए कहा गया है कि ऐसे कई महापुरुष भूतकाल में हुए है, वर्तमान में हैं और भविष्य में होंगे जो अपना संपूर्ण जीवन अपने एकमात्र लक्ष्य लोकहित हेतु व्यतीत करते हैं, ऐसे महापुरुषों के चरणयुगल में तीनों लोकों के प्राणी नतमस्तक होते हैं (36)
आगे की गाथा में यह भी विवेचन है कि ऐसे महापुरुषों के व्यक्तित्व का स्मरण करने मात्र से पाप कर्मों का प्रायश्चित हो जाता है (37)।
__ ग्रन्थ में शिष्य के लिए गुरु का भय सदैव अपेक्षित मानते हुए कहा गया है कि जिस प्रकार संसार में नौकर एवं अश्व आदि वाहन अपने स्वामी की सम्यक् देखभाल या नियंत्रण के अभाव में स्वच्छंद हो जाते हैं उसी प्रकार प्रतिप्रश्न, प्रायश्चित तथा प्रेरणाआदि के अभाव में शिष्य भी स्वच्छंद हो जाते हैं इसलिए शिष्य को सदैव गुरु का भयरहना चाहिए (38)।
ग्रन्थ में साधुओं के प्रत्येक गच्छ को गच्छ नहीं माना गया है वरन् शास्त्रों का सम्यक् अर्थ रखने वाले, संसार से मुक्त होने की इच्छा वाले, आलस्य रहित, व्रतों का दृढ़तापूर्वक पालन करने वाले, सदैव अस्खलित चारित्र वाले और राग-द्वेष से रहित रहने वाले साधुओं के गच्छ को हीवास्तव में गच्छ माना गया है (39)।
साधुस्वरूप का निरुपण करते हुएग्रन्थ में कहा गया है किगीतार्थ केवचन भले ही हलाहल विष के समान होते हों तो भी उन्हें बिना संकोच के स्वीकार करना चाहिए क्योंकि