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दशी की नन्दा; द्वितीया, सप्तमी एवं द्वादशी की भद्रा; तृतीया, अष्टमी और त्रयोदशी की जया; चतुर्थी , नवमी एवं चतुर्दशी की रिक्ता एवं पंचमी, दशमी और पूर्णिमा एवं अमावस्या की पूर्णा संज्ञा है। नंदा संज्ञक तिथियाँ मंगलवार को, रिक्ता संज्ञक तिथियाँ शनिवार को एवं पूर्णा संज्ञक तिथियाँ गुरुवार को पड़े तो सिद्धा कहलाती हैं। सिद्धा तिथियों में किया गया व्यापार, अध्ययन, लेन-देन अथवा किसी भी प्रकार का नवीन कार्य सिद्ध होता है। नन्दा संज्ञक तिथियों में चित्रविद्या, उत्सव, गृहनिर्माण, कृषि कार्य गीत नृत्य आदि सुचारु रूप से संपन्न होते हैं। भद्रा संज्ञक तिथियों में विवाह, आभूषण निर्माण, गाड़ी की सवारी, जया संज्ञक तिथियों में संग्राम, सैनिकों की भर्ती, युद्ध में जाना, तीक्ष्ण वस्तुओं का संचय, रिक्ता संज्ञक तिथियों में शस्त्र का प्रयोग, विषप्रयोग, निन्द्य कार्य एवं पूर्णा संज्ञक तिथियों में मांगलिक कार्य विवाह, यात्रा आदि कार्य करना शुभ है। अमावस्या को मांगलिक कार्य नहीं किये जाते हैं। इस तिथि में प्रतिष्ठा, जापआरंभ, शांति एवं पौष्टिक कार्य करने का भी निषेध किया गया है।'
दिगम्बर परंपरा के ग्रंथ व्रत तिथि निर्णय में कहा गया है कि चतुर्थी, षष्ठी, अष्टमी, नवमी, द्वादशी और चतुर्दशी इन तिथियों की पक्षरन्ध्र संज्ञा है। इनमें उपनयन, विवाह, प्रतिष्ठा, गृहारम्भ आदि कार्य करना अशुभ बताया है। यदि इन तिथियों में कार्य करने की अत्यंत आवश्यकता हो तो इनमें प्रारंभ की पाँच घटिकाएँ अर्थात् दो घण्टे अवश्य त्याज्य है। अभिप्राय यह है कि उपर्युक्त तिथियों में सूर्योदय के दो घण्टे बाद कार्य करना चाहिए।
रविवार को द्वादशी, सोमवार को एकादशी, मंगलवार को पंचमी, बुधवार को तृतीया, बृहस्पतिवार को षष्ठी, शुक्रवार को अष्टमी और शनिवार को नवमी तिथि होने पर दग्धयोग कहलाता है। इस योग में कार्य करने से नाना प्रकार के विघ्न आते हैं। अभिप्राय यह है कि वार और तिथियों के संयोग से कुछ शुभ और कुछ अशुभ योग बनते हैं। यदि रविवार को द्वादशी तिथि हो तो दग्धयोग कहलाता है, इसमें शुभ कार्य
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व्रततिथिनिर्णय, पृ.76