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गच्छाचार पइण्णयं - 6 गच्छाचार प्रकीर्णक
गच्छाचार प्रकीर्णक प्राकृत भाषा में निबद्ध एक पद्यात्मक रचना है । 'गच्छाचार' शब्द 'गच्छ' और 'आचार'- इन दो शब्दों से मिलकर बना है। प्रस्तुत प्रकीर्णक के संबंध में विचार करने के लिए हमें गच्छ' शब्द के इतिहास पर भी कुछ विचार करना होगा। यद्यपि वर्तमान काल में जैन सम्प्रदायों के मुनि संघों का वर्गीकरण गच्छों के आधार पर होता है जैसे- खरतरगच्छ, तपागच्छ, पायचन्दगच्छ आदि। किन्तु गच्छों के रूप में वर्गीकरण की यह शैली अति प्राचीन नहीं है। प्रचीनकाल में हमें निर्ग्रन्थ संघों की विभिन्न गणों में विभाजित होने की सूचना मिलती है।
समवायांग सूत्र में महावीर के मुनि संघ में निम्न नौ गणों का उल्लेख मिलता है- (1) गोदासगण, (2) उत्तरबलिस्सहगण, (3) उद्देहगण, (4) वारणगण, (5) उद्दकाइयगण, (6) विस्सवाइयगण, (7) कामर्धिकगण, (8) मानवगण और (9) कोटिकगण'।
कल्पसूत्र स्थविरावली में इन गणों का मात्र उल्लेख ही नहीं है वरन् ये गण आगे चलकर शाखाओं एवं कुलो आदि में किस प्रकार विभक्त हुए, यह भी उल्लिखित है। कल्पसूत्र स्थविरावली के अनुसार आर्य यशोभद्र के शिष्य आर्यभद्रबाहु के चार शिष्य हुए, उनमें से आर्य गोदास में गोदासगण निकला। उस गोदासगण की चार शाखाएँ
1) ताम्रलिप्तिका, (1) कोटिवर्षिका, (3) पौण्डवर्द्धनिका और (4) दासी खर्बटिका। आर्य यशोभद्र के दूसरे शिष्य सम्भूतिविजय के बारह शिष्य हुए, उनमें से आर्य स्थूलिभद्र के दो शिष्य हुए- (1) आर्य महागिरी और (2) आर्य सुहस्ति। आर्य महागिरि के स्थविर उत्तरबलिस्सह आदिआठ शिष्य हुए, इनमें स्थविर उत्तरबलिस्सह से उत्तरबलिस्सहगण निकला। इस उत्तरबलिस्सह गण की भी चार शाखाएँ हुई- (1) कोशाम्बिका, (2) सूक्तमुक्तिका, (3) कौटुम्बिका और (4) चन्द्रनागरी।
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समवायांगसूत्र - सम्पा. मुनि मधुकर, प्रका.श्रीआगम प्रकाशन, समिति, ब्यावर, प्रथम संस्करण, ई. सन् 1981, सूत्र 9/29। कल्पसूत्र, अनु. आर्या सज्जन श्रीजीम., प्रका. श्री जैन साहित्य समिति, कलकत्ता; पत्र 334-345।
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