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260 विनम्रता प्रकट होती है वहीं दूसरी ओर यह भी सिद्ध होता है कि यह एक प्राचीन स्तर का ग्रंथ है। ग्रंथकर्ता के रूप में हमने पूर्व में जिन वीरभद्र का उल्लेख किया है वह संभावना मात्र है। इस संदर्भ में निश्चयपूर्वक कुछ कहना दुराग्रह होगा। गच्छाचार कारचनाकाल
नन्दीसूत्र और पाक्षिकसूत्र में आगमों का जो वर्गीकरण किया गया है उसमें गच्छाचार प्रकीर्णक का कोई उल्लेख नहीं है। तत्त्वार्थभाष्य और दिगम्बर परंपरा की सर्वार्थसिद्धि टीका में भी गच्छाचार प्रकीर्णक का कहीं कोई उल्लेख नहीं हुआ है। इसी प्रकार यापनीय परंपरा के ग्रंथों में भी कहीं भीगच्छाचार प्रकीर्णक का उल्लेख उपलब्ध नहीं होता। इससे यही फलित होता है कि 6ठीं शताब्दी से पूर्व इस ग्रंथ का कोई अस्तित्व नहीं था। गच्छाचार प्रकीर्णक कासर्वप्रथम उल्लेख विधिमार्गप्रपा में मिलता है जहाँ चौदह प्रकीर्णकों में गच्छाचार को अंतिम प्रकीर्णक गिना गया है । इसका तात्पर्य यह है कि गच्छाचार प्रकीर्णक नन्दीसूत्र और पाक्षिक सूत्र से परवर्ती अर्थात् 6ठीं शताब्दी के पश्चात् तथा विधि मार्गप्रपा अर्थात् 14वीं शताब्दी से पूर्व अस्तित्व में आ चुका था। गच्छाचार प्रकीर्णक के रचयिता ने जिस प्रकार ग्रंथ में ग्रंथकर्ता के रूप में कहीं भीअपना नामोल्लेख नहीं किया है उसी प्रकार इस ग्रंथ के रचनाकाल के संदर्भ में भी उसने ग्रंथ में कोई संकेत नहीं दिया है। किन्तु ग्रंथ की 135वीं गथा में ग्रन्थकार का यह कहना कि इस ग्रंथ की रचना महानिशीथ, कल्प और व्यवहार सूत्र के आधार पर की गई हैं इस अनुमान को बल देता है कि गच्छाचार की रचना महानिशीथ के पश्चात् ही कभी हुई है।
___ महानिशीथ का उल्लेख नन्दीसूत्र की सूची में मिलता है । इससे यह फलित होता है कि महानिशीथ 6ठी शताब्दी पूर्व का ग्रंथ है किन्तु महानिशीथ की उपलब्ध प्रतियों में यह भी स्पष्ट उल्लिखित है कि महानिशीथ की प्रति के दीमकों द्वारा भक्षित हो जाने पर उसका उद्धार आचार्य हरिभद्रसूरिने 8वीं शताब्दी में किया था।
1. 2.
विधिमार्गप्रपा, पृष्ठ 57-58। "महानिसीह - कप्पाओववहाराओ तहेवय। साहु-साहुणिअट्ठाएगच्छाचारंसमुद्धियं॥"
- गच्छाचार प्रकीर्णक, गाथा 135 नन्दीसूत्र-सम्पा. मुनि मधुकर, सूत्र 76,79-81 उद्धृत - जैन साहित्य का बृहद इतिहास, भाग 2, पृष्ठ 291-292
3. 4.