________________
154
कहा गया है कि वहाँ नाना मणिरत्नों से रचित मनुष्यों, मगरों, विहंगो और व्यालों की आकृतियाँ शोभायमान हैं, जो सर्वरत्नमय, आश्चर्य उत्पन्न करने वाली तथा अवर्णनीय हैं। ( 38-40 ) 1
ग्रंथ में है उल्लेख कि अंजन पर्वतों के एक लाख योजन अपान्तराल को छोड़ने के बाद चार पुष्करिणियाँ हैं, जो एक लाख योजन विस्तीर्ण तथा एक हजार योजन गहरी हैं। ये पुष्करिणियाँ स्वच्छ जल से भरी हुई हैं (41-43)। इन पुष्करिणियों की चारों दिशाओं में चैत्यवृक्षों से युक्त चार वनखण्ड बतलाए गए हैं (44-47 ) ।
पुष्करिणियों के मध्य में रत्नमय दधिमुख पर्वत कहे गए हैं। दधिमुख पर्वतों की ऊँचाई एवं परिधि की चर्चा करते हुए उन पर्वतों को शंख समूह की तरह विशुद्ध, अच्छे जमे हुए दही के समान निर्मल, गाय के दूध की तरह उज्ज्वल एवं माला के समान क्रमबद्ध बतलाया हैं । इन पर्वतों के ऊपर भी गगनचुम्बी जिनमंदिर अवस्थित हैं, ऐसा उल्लेख हुआ है ( 48-51 )।
ग्रंथ के अंजन पर्वतों की पुष्करिणियों का उल्लेख करते हुए दक्षिण, पश्चिम और उत्तर दिशा वाले अंजन पर्वतों की चारों दिशाओं में स्थित चार-चार पुष्करिणियों के नाम बतलाए गए हैं (52-57)। यहाँ पूर्व दिशा के अंजन पर्वत और उसकी चारों दिशाओं में पुष्करिणियाँ हैं अथवा नहीं, इसकी कोई चर्चा नहीं की गई है।
प्रस्तुत ग्रंथ के अनुसार नन्दीश्वर द्वीप में इक्यासी करोड़ इक्कानवें लाख पिच्चानवें हजार योजन अवगाहना करने पर रतिकर पर्वत हैं । ग्रंथ में इन रतिकर पर्वतों की ऊँचाई, विस्तार, परिधि आदि का परिमाण बतलाते हुए पूर्व-दक्षिण, पश्चिमदक्षिण, पश्चिम-उत्तर तथा पूर्व - उत्तर दिशा में स्थित रतिकर पर्वतों की चारों दिशाओं में एक लाख योजन विस्तीर्ण तथा तीन लाख योजन परिधि वाली चार-चार राजधानियों को पूर्वादि दिशाओं के अनुक्रम से चारों दिशाओं में स्थित माना है (58-70 ) ।
कुण्डल द्वीप का विस्तार दो हजार छः सौ इक्कीस करोड़ चौवालीस लाख योजन बतलाया गया है । ग्रंथ में कुण्डल द्वीप के मध्य में स्थित प्राकार के समान आकार वा कुण्डल पर्वत की ऊँचाई, जमीन में गहराई तथा अधो भाग, मध्य भाग और शिखर-तल के विस्तार का भी विवेचन किया गया है (71-75 ) ।
कुण्डल पर्वत के ऊपर पूर्वादि दिशाओं के अनुक्रम से चारों दिशाओं में चारचार - इस प्रकार कुल सोलह शिखर कहे गये हैं। साथ ही इन शिखरों के अधोभाग,