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गणिविजापइण्णयं - 5
प्रकीर्णक
__ वर्तमान में आगमों के अंग, उपांग, छेद, मूलसूत्र, प्रकीर्णक आदि विभाग किये जाते हैं। यह विभागीकरण हमें सर्वप्रथम विधिमार्गप्रपा (जिनप्रभ-13वीं शताब्दी) में प्राप्त होता है। सामान्यतया प्रकीर्णक का अर्थ विविध विषयों पर संकलित ग्रंथ ही किया जाता है। नंदीसूत्र के टीकाकार मलयगिरि ने लिखा है कि तीर्थंकरों द्वारा उपदिष्ट श्रुत का अनुसरण करके श्रमण प्रकीर्णकों की रचना करते थे। परंपरानुसार यह भी मान्यता है कि प्रत्येक श्रमण एक-एक प्रकीर्णक की रचना करते थे।
जैन पारिभाषिक दृष्टि से प्रकीर्णक उन ग्रंथों को कहा जाता है जो तीर्थंकरों के शिष्य उबुधवेत्ताश्रमणों द्वाराआध्यात्म-सम्बद्ध विविध विषयों पररचे जाते हैं।' . - यह भी मान्यता है कि श्रुत का अनुसरण करके वचन कौशल से धर्मदेशनाआदि के प्रसंगसे श्रमणों द्वारा कथितजोरचनाएँ हैं, वे प्रकीर्णक कहलाती है।'
प्रकीर्णकों की संख्या
समवायांगसूत्र में “चोरासीइंपण्णगंसहस्साइंपण्णत्ता" कहकर
1. 2. 3. 4.
मूलाचार - भारतीय ज्ञानपीठ, गाथा, 277 विधिमार्गप्रपा-पृष्ठ 55। आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन, पृष्ठ 484। जैन आगम साहित्य मनन और मीमांसा, पृष्ठ 388।