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जबकि हमें देखना यह चाहिए कि ये ग्रंथ मनुष्य के आध्यात्मिक, साधनात्मक एवं चारित्रिक मूल्यों के विकास में कितना योगदान करते हैं। यदि हमें इनके अध्ययन करने के पश्चात् ऐसा लगे कि इनमें उपयोगी सामग्री रही हुई है तो यत्किंचित मान्यताभेद के रहते हुए भी इन्हें आगम रूप में स्वीकार कर लेना चाहिए और इनके अध्ययनअध्यापन को भी विकसित करना चाहिए। ग्रंथ में प्रयुक्त हस्तलिखित प्रतियों का परिचय
मुनि श्री पुण्यविजयजी ने इस ग्रंथ के पाठ निर्धारण में निम्न प्रतियों का उपयोग कियाथा1.सं. : संघवीपाड़ा जैन ज्ञान भंडार की ताड़पत्रीय प्रति। 2. पु. : मुनिश्री पुण्यविजयजी महाराज की हस्तलिखित प्रति। 3. सा. : आचार्य सागरानन्दसूरीश्वरजी द्वारा सम्पादित प्रति। 4.हं. : मुनिश्री हंसविजयजी महाराज की हस्तलिखित प्रति।
हमने क्रमांक 1 से 4 तक की इन पाण्डुलिपियों के पाठ भेद मुनि पुण्यविजयजी द्वारा संपादित पइण्णयसुत्ताई नामक ग्रंथ से ही लिए हैं। इन पाण्डुलिपियों की विशेष जानकारी के लिए हम पाठकों से पइण्णयसुत्ताइग्रंथ की प्रस्तावना के पृष्ठ 23-27 देख लेने की अनुशंसा करते हैं। लेखक एवं रचनाकाल का विचार
महाप्रत्याख्यान का उल्लेख यद्यपि नन्दीसूत्र, पाक्षिकसूत्र आदि अनेक ग्रंथों में मिलता है किन्तु इस ग्रंथ के लेखक के संबंध में कहीं पर भी कोई निर्देश उपलब्ध नहीं होता है जो संकेत हमें मिलते हैं उनके आधार पर मात्र यही कहा जा सकता है कि यह 5वीं शताब्दी या उसके पूर्व के किसी स्थविर आचार्य की कृति है। इसके लेखक के संदर्भ में किसी भी प्रकार का कोई संकेत सूत्र उपलब्ध न हो पाने के कारण इस संबंध में अधिक कुछ भी कहना कठिन है।
किन्तु जहाँ तक इस ग्रंथ के रचनाकाल का प्रश्न है, इतना तो सुनिश्चित रूप से कह सकते हैं कि यह ईस्वी सन् की 5वीं शताब्दी के पूर्व की रचना है क्योंकि महाप्रत्याख्यान का उल्लेख हमें नंदीसूत्र एवं पाक्षिक सूत्र के अतिरिक्त नन्दीचूर्णि आदि में भी मिलता है। पाक्षिक सूत्र की वृत्ति तथा नन्दीचूर्णि में इस ग्रंथ की विषयवस्तु काभी