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101 सभी ग्रंथ ईसवी सन् को पाँचवीं - छठी शताब्दी के मध्य के हैं । यद्यपि यहाँ यह निर्धारित कर पाना कठिन है कि ये सभी गाथाएँ इन ग्रंथों में गई है, फिर भी जो ग्रंथ नन्दी से परवर्ती हैं उनमें ये गाथाएँ महाप्रत्याख्यान से ही गई होगी, यह माना जा सकता है। विशेष रूप से मूलाचार, भगवती आराधना आदि में उपलब्ध होने वाली समान गाथाएँ प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप में महाप्रत्याख्यान से ही गई होगी। पुनः इस ग्रंथ की उपलब्ध ताड़पत्रीय प्रतियाँ भी यही प्रमाणित करती है कि यहग्रंथ पर्याप्त रूप से प्राचीन है।
महाप्रत्याख्यान के रचनाकाल के संदर्भ में विचार करने के लिए एक महत्वपूर्ण साक्ष्य हमारे समक्ष यह है कि इसमें द्वादश-विध श्रुतस्कन्ध का उल्लेख हुआ है।' इसका तात्पर्य यह है कि जब कभी यह ग्रंथ अस्तित्व में आया होगा तब तक द्वादशविध श्रुतस्कन्ध अस्तित्व में आ चुके थे। हमें यह स्मरण रखना चाहिएद्वादश अंगों की अवधारणा जैन परंपरा में पर्याप्त प्राचीन है। द्वादशअंगों का उल्लेख स्थानांग', समवायांग'आदिप्राचीन आगमग्रंथों में भी मिलता है। यद्यपिइस कथन से इस ग्रंथ के रचनाकाल को निर्धारित कर पाने में कोई विशेष सहायता तो नहीं मिलती है किन्तु इस आधार पर इतना तो कहा ही जा सकता है कि जब द्वादश-विध श्रुतस्कन्ध अस्तित्व में आया होगा तब ही इस ग्रंथ की रचना हुई होगी। ग्रंथ में उल्लिखित द्वादश अंगों के कथन से यह अर्थ भी स्वतः ही फलीभूत होता है कि इस ग्रंथ की रचना द्वादशअंगों की रचना के बाद तथा पूर्व साहित्य के लुप्त होने के पूर्व हुई होगी। इस ग्रंथ में द्वादश अंगों का उल्लेख, किन्तु नियुक्ति, भाष्य और चूर्णी के नामों का अभाव यही सूचित करता है कि इस ग्रंथ की रचना ईसा की द्वितीय शताब्दी के बाद तथा पाँचवीं शताब्दी के पूर्व कभी हुई होगी।
रचनाकाल के संबंद्ध में ही एक और बात ध्यान देने योग्य है कि इस ग्रंथ में समाधिमरण के प्रसंग में कहीं भी गुणस्थानों की चर्चा नहीं हुई है जबकि समाधिमरण की विषयवस्तु का प्रतिपादन करने वाले यापनीय परंपरा के मान्य ग्रंथ भगवती आराधना और मूलाचार में भी गुणस्थानों की चर्चा की गई है।
1. गाथा, 102। 2.स्थानांग 10/1031 3.समवायांग 1/21