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पाक्षिक सूत्र भी पर्याप्त रूप से प्राचीन हैं, अतः उसमें इस ग्रंथ का उल्लेख होना इसकी प्राचीनता का परिचायक है । इसके अतिरिक्त नन्दीसूत्र चूर्णी, आवश्यक सूत्र चूर्णी एवं पाक्षिक सूत्र की वृत्ति में भी द्वीपसागर प्रज्ञप्ति का नामोल्लेख उपलब्ध है'। पाक्षिक सूत्र वृत्ति के अनुसार यह ग्रंथ द्वीपों एवं सागरों का विवरण प्रस्तुत करता है । इन सभी ग्रंथों में द्वीपसागरप्रज्ञप्ति का उल्लेख यह सूचित करता है कि जैनागमों की देवर्द्धिगणी की वाचना से पूर्व यह ग्रंथ अस्तित्व में आ चुका था ।
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जैन आगम - स्थानांग सूत्र, समवायांग सूत्र, व्याख्याप्रज्ञप्ति, राजप्रश्नीय सूत्र, जीवाजीवाभिगमसूत्र तथा सूर्य प्रज्ञप्ति आदि में यत्र-तत्र द्वीप - समुद्रों से संबंधित विषयवस्तु उपलब्ध होती है, लेकिन यह विषय वस्तु वहाँ विकीर्ण रूप में ही उपलब्ध है क्योंकि इनमें से किसी भी ग्रंथ में द्वीप - समुद्रों का सांगोपांग एवं सुव्यवस्थित विवरण नहीं मिलता है, जबकि द्वीपसागर प्रज्ञप्ति में मानुषोत्तर पर्वत के आगे स्थित द्वीप समुद्रों का सांगोपांग एवं सुव्यवस्थित विवरण है । पुनः स्थानांगसूत्र एवं सूर्यप्रज्ञप्ति आदि आगम ग्रंथों में इसकी आंशिक विषय वस्तु गद्य रूप में मिलती है, जबकि यह ग्रंथ प्राकृत पद्यों में रचा गया है। आज यह कहना तो कठिन है कि यह विषय - सामग्री द्वीपसागरप्रज्ञप्ति से आगमों में गई है या आगमों की विषय-वस्तु से ही द्वीपसागरप्रज्ञप्ति की रचना हुई है, किन्तु इतना निश्चित है कि द्वीप - समुद्रों का पद्य रूप में विवरण प्रस्तुत करने वाला यह प्रथम एवं प्राचीन ग्रंथ है ।
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(क) कालियं अणेगविहं पण्णत्तं, तंजहा - (1) उत्तराज्झयणाई.. ( 9 ) दीवसागरपण्णत्ती... ( 31 ) वण्हीदसाओ ।
( नन्दीसूत्र - मुनि मधुकर, पृष्ठ 163) (ख) इमं वाइअं अंगबाहिरं कालिअं भगवंतं तंजहा - उत्तराज्झयणाइ (1 ) ... दीवसागरपण्णत्ती ( 2 ) .... तेअग्गिनिसग्गाणं ( 36 ) ।
( पाक्षिकसूत्र - देवचन्द लालभाई जैन पुस्तकोद्धार फण्ड, पृष्ठ 79 )
(क) नन्दीसूत्र चूर्णी, पृष्ठ 59 ( प्राकृत टेक्स्ट सोसायटी, वाराणसी) (ख) श्रीमद् आवश्यकसूत्रम्, पृष्ठ 6 (श्री ऋषभदेवजी केशरीमलजी श्वेताम्बर
संस्था, रतलाम)
(ग) द्वीपसागराणं प्रज्ञापनं यस्यां सा द्वीपसागरज्ञप्ति ।
(पाक्षिक सूत्र, पृष्ठ 81 )