Book Title: Paniniya Ashtadhyayi Pravachanam Part 05
Author(s): Sudarshanacharya
Publisher: Bramharshi Swami Virjanand Arsh Dharmarth Nyas Zajjar
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षष्ठाध्यायस्य प्रथमः पादः सिद्धि-(१) अटिटिषति। अट्+सन्। अट+इट+स। अट्+इ+ष। अटिष।। अटिष् टिष् अ। अटिटिष+लट् । अटिटिष्+तिम्। अटिटिष+शप्+ति। अटिटिष+अ+ति। अटिटिषति।
यहां 'अट गतौ' (भ्वा०प०) धातु से 'धातो: कर्मण: समानकर्तृकादिच्छायां वा' (३।१।७) से 'सन्' प्रत्यय, आर्धधातुकस्येवलादेः' (७।२।३५) से उसे 'इट्' आगम, आदेशप्रत्यययो:' (८।३।५९) से उसे षत्व होता है। 'सन्यडो:' (६।१।९) से द्वित्व की प्राप्ति होने पर इस सूत्र से अजादि धातु के अवयवभूत द्वित्व एकाच टिष्' को द्वित्व होता है, प्रथम अच् अकार को नहीं। सनाद्यन्ता धातवः' (३।१।३२) से 'अटिटिष' की धातु संज्ञा होकर वर्तमाने लट् (३।२।१२३) से 'अटिटिष' धातु से लट्' प्रत्यय, 'तिप्तस्झि०' (३।४।७४) से ल' के स्थान में तिप्' आदेश, कर्तरि शप' (३।१।६८) से 'शप्' विकरण प्रत्यय और 'अतो गुणे (६।१।९६) से अकार को पररूप एकादेश होता है। ऐसे ही 'अश भोजने (क्रया०प०) धातु से-अशिशिषति ।
(२) अरिरिषति । यहां 'ऋ गतौ' (भ्वा०प०) धातु से पूर्ववत् सन्' प्रत्यय करने पर सार्वधातुकार्धधातुकयो:' (७।३।८४) से 'ऋ' को 'अ' गुण और उरण रपरः' से उसे रपरत्व 'अर्' होता है। 'अर्' को पूर्ववत् इट्' आगम होता है। पश्चात् 'अरिष्' धातु को पूर्ववत् कार्य होता है। द्विवर्चन-प्रतिषेधः{12 (३) न न्द्राः संयोगादयः ।।
प०वि०-न अव्ययपदम्, न्द्रा: १।३ संयोगादय: १।३ ।
स०-नश्च दश्च रश्च ते-न्द्रा: (इतरेतरयोगद्वन्द्वः)। संयोगस्य आदि: संयोगादि:, ते-संयोगादय: (षष्ठीतत्पुरुषः)।
अनु०-द्वे, एकाच:, अजादे:, द्वितीयस्य इति चानुवर्तते । अन्वय:-अजादेद्वितीयस्यैकाच: संयोगादयो न्द्रा द्वे न।
अर्थ:-अजादेर्धातोरवयवस्य द्वितीयस्यैकाचः संयोगादयो न्द्रा न द्विरुच्यन्ते, इत्यधिकारोऽयम् ।
उदा०-(नकार:) उन्दिदिषति । (दकार:) अड्डिडिषति। (रेफ:) अर्चिचिषति।
आर्यभाषा: अर्थ- (अजादे:) अच् जिसके आदि में है उस धातु के अवयवभूत (द्वितीयस्य) द्वितीय (एकाच:) एकाच समुदाय के (संयोगादयः) संयोग के आदि में विद्यमान (न्द्राः ) नकार, दकार और रेफ को (द) द्वित्व (न) नहीं होता है।