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[18] में ही 'सुसर्वार्द्धदिक्शब्देभ्यो जनपदस्य' ॥ ३ ॥ न्याय की बृहद्वृत्ति के "ख्यापकं त्वस्य 'सुसर्वार्द्धाद्राष्ट्रस्य' ७/ ४/१५, 'अमद्रस्य दिशः' ७/४/१६ इति सूत्राभ्यामुत्तरपदस्य वृद्धिविधानमेव" शब्दों की समझ दी है, उसमें "पुरातनन्यायवृत्तौ' शब्द प्राप्त है 20
श्रीहेमहंसगणि के इन शब्दों से भी ज्ञात होता है कि 'न्यायसंग्रह' से पूर्व भी हैमपरम्परा में न्यायों की वृत्ति तो होगी ही किन्तु 'न्यायसंग्रह' की रचना के साथ ही उसका अध्ययन प्राय: लप्त होता चला हो और आगे चलकर पूर्णतः बन्द हो गया हो । परिणामतः इसकी प्रतिलिपि भी बाद में नहीं हुई होगी।
दूसरी बात यह कि श्रीहेमहंसगणि ने इसी 'न्यायसंग्रह' की वृत्ति को 'न्यायार्थमञ्जूषा' नाम दिया है और इसे बृहद्वृत्ति कही है अर्थात् उनके ही द्वारा इसी 'न्यायसंग्रह' की लघुवृत्ति भी बनायी गई होगी किन्तु बृहद्वृत्ति व उसके न्यास की तुलना में शायद अधिक महत्त्वपूर्ण नहीं होने से, उसकी प्रतिलिपि बहुत कम संख्या में हुई होगी और हैमव्याकरण की अध्ययन परम्परा में केवल इसी बृहद्वृत्ति का ही अधिकतम प्रयोग हुआ होगा । इसी कारण से वह कालकवलित अर्थात् लुप्त हो गई होगी, ऐसा एक अनुमान लगाया जा सकता है।
प्रस्तुत 'न्यायसंग्रह' की बृहद्वत्ति में भी शायद इसकी लघवत्ति का एक अवशेष/सन्दर्भ उपलब्ध होता है - 'न्यायसंग्रह' में दी गई 'प्रकृतिवदनुकरणम्' ॥६॥ न्याय की वृत्ति वस्तुत: बृहद्वृत्ति ही नहीं है, ऐसी आशंका अस्थानापन्न नहीं है । न्यास में 'न्यायार्थमञ्जूषा' नामक बृहद्वृत्ति के विशिष्ट पदों की समझ दी गई है। इस न्याय के न्यास में 'शब्दार्थनुकरणमिति' कहकर 'शब्दार्थानुकरण' की समझ दी गई है,21 किन्तु छपी हुई इस न्याय की तथाकथित बृहद्वृत्ति में कहीं भी 'शब्दार्थानुकरणम्' शब्द ही नहीं है 2 इससे यह अनुमान हो सकता है कि इस न्याय की बहदवत्ति पूर्णत: नहीं मिल पायी होगी, कछ अंश लप्त हो गया होगा, किन्त इस न्याय की छपी हर्ड वृत्ति में कहीं भी सम्बन्ध त्रुटित नहीं होता है । अत: हैम परम्परा के किसी अध्येता ने या किसी विद्वान् ने आगे चलकर त्रुटित बृहद्वृत्ति के स्थान पर 'लघुवृत्ति' ही रख दी हो ऐसी संभावना है क्योंकि छपी हुई वृत्ति अन्य न्यायों की वृत्ति की तुलना में बहुत ही छोटी है।
इससे यह सिद्ध होता है कि शायद श्रीहेमहंसगणि द्वारा ही 'न्यायसंग्रह' की लघुवृत्ति की रचना की गई होगी किन्तु अभी वह अप्राप्त है।
पाणिनीय परम्परा से भिन्न संस्कृत व्याकरण की परम्परा में परिभाषा के क्षेत्र में कोई महत्त्वपूर्ण विवेचन ग्रंथ का निर्माण नहीं हुआ है । उसी तरह सिद्धहेम की परम्परा में भी श्रीहेमहंसगणि के 'न्यायसंग्रह' को छोडकर कोई महत्त्वपूर्ण विवेचन नहीं हुआ है । पिछले कुछ साल पहले तपागच्छाधिपति शासनसम्राट आचार्य श्रीविजयनेमिसूरीश्वरजी महाराज के पट्टधर महान् वैयाकरण आचार्य श्रीविजयलावण्यसूरिजी महाराज ने इसी 'न्यायसंग्रह' के आधार पर 'न्यायसमुच्चय' नामक ग्रंथ में उसी न्यायों पर 'न्याययार्थसिन्धु' और 'तरङ्ग' नामक पांडित्यपूर्ण टीकाएँ लिखी है, जो उनकी व्याकरण और न्यायशास्त्रविषयक विद्वत्ता का परिचय देती है। ५. 'न्यायसंग्रह' की रचना पद्धति
यह 'न्यायसंग्रह' कुल मिलाकर चार खण्डों में विभक्त है। प्रथम खण्ड में सूत्रकार आचार्य श्रीहेमचन्द्रसूरिजी 20. पुरातनन्यायवृत्तौ तस्यैव ज्ञापकस्य दर्शितत्वात् । (न्यायसंग्रह-स्वोपज्ञन्यास, पृ. १६०) 21. 'शब्दार्थनुकरणमिति ।' यत्र स्याद्वादबलेनानुकार्यानुकरणयोर्भेदविवक्षा, तत्र शब्दः प्रस्तावादनुकार्यरूप एवार्थो, यस्य,
तच्च तदनुकरणं च, शब्दार्थानुकरणम् ।
(न्यायसंग्रह - स्वोपज्ञन्यास पृ. १६२) 22. द्रव्य : 'न्यायसंग्रह' पृ. ८
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