________________
[17]
९. हैमलघुन्याय प्रशस्ति अवचूरि श्रीउदयचन्द्र १०.धातुपारायण
कलिकालसर्वज्ञ श्रीहेमचन्द्रसूरिजी श्रीहेमचन्द्राचार्यजी के व्याकरण में धातुपाठ, गणपाठ, उणादिसूत्र और लिङ्गानुशासन का समावेश होता है किन्तु परिभाषा सम्बन्धित उनका अपना कोई साहित्य नहीं है।
युधिष्ठिर मीमांसक लिखते है कि - "आचार्य हेमचन्द्र ने अपने व्याकरण से संबद्ध परिभाषाओं की स्वयं ही रचना की और स्वयं ही उनकी व्याख्या की।"16 किन्तु यह सही नहीं है। हां, आचार्य श्रीहेमचन्द्रसूरिजी ने स्वयं अपनी बृहद्वृत्ति के अन्त में ५७ परिभाषाओं की एक सूचि दी है, जिसमें अपने पूर्ववर्ती वैयाकरणों भोज आदि के परिभाषासंग्रह में से पसंद की गई महत्त्वपूर्ण परिभाषाओं का समावेश होता है, तथापि उसके क्रम आयोजन में उनकी अपनी मौलिकता प्रतीत होती है।
सिद्धहेम परम्परा की इसी कमी को पंडित श्रीहेमहंसगणि ने दूर करने का महत्त्वपूर्ण प्रयास किया है। यद्यपि उनके पूर्ववर्ती हैम परम्परा के वैयाकरणों ने इसके लिए प्रयत्न तो किये होंगे किन्तु वे पूर्णतः सफल नहीं हुए होंगे, ऐसा श्रीहेमहंसगणि के 'न्यायसंग्रह' की 'न्यायार्थमञ्जुषा' नामक बृहद्वृत्ति के शब्दों से प्रतीत होता है। उन्होंने बताया है कि 'उन न्यायों के अर्थात् श्रीहेमचन्द्राचार्यजी द्वारा संग्रहित ५७ न्यायों के अनित्यत्व की उपेक्षा करके व्याख्या, उदाहरण और ज्ञापक सहित एक छोटी सी टीका किसी प्राचीन वैयाकरण ने बनायी है।7
संभवत: श्रीहेमहंसगणि ने जिस प्राचीन न्यायवृत्ति का सन्दर्भ दिया है, उसकी एक प्रति लींबडी जैन श्वे. मू. पू. ज्ञानभंडार में मौजूद है, किन्तु दुर्भाग्यपूर्णबात यह है कि उसके कुल तीन पत्र ही थे, उसमें से पहला पत्र ही लुप्त हो गया है। शेष दो पत्र के अन्त में - "इति हैमव्याकरणसम्बद्धन्यायवृत्ति ॥ ग्रंथाग्रं १७५ ॥" लिखा है और यही प्रति संभवत: विक्रम के सोलाहवें शतक के प्रारंभ में लिखी गई है। इसकी अन्य दो प्रतियाँ ला. द. प्राच्य विद्यामन्दिर, अहमदाबाद-३८०००९ के संग्रह से प्राप्त हुयी है। उनमें से एक प्रति मूलन्यायवृत्ति की है, जबकि दूसरी प्रति में बहुत सी टिप्पणियाँ है । इसके अलावा श्रीहेमहंसगणि के 'न्यायसंग्रह' पर एक दूसरी 'लघुन्यायवृत्ति प्राप्त हुयी है, जो वि.सं. १५३५ में लिखी गई है। संभव होगा तो हैमव्याकरण सम्बद्ध ऐसी विभिन्न न्यायवृत्तियों का एक दूसरा ग्रंथ प्रकाशित किया जायेगा।
आगे चलकर 'न्यायसंग्रह' की 'न्यायार्थमञ्जूषा' बृहद्वृत्ति के स्वोपज्ञन्यास में भी उन्होंने वृत्ति के 'अनित्यत्वमुपेक्ष्य' शब्द की स्पष्टता करते हुए बताया है कि "वस्तुतः 'सिद्धिः स्याद्वादात्' १/१/२ कहने से ही शिष्ट प्रयोग की सिद्धि के लिए ही इन सब न्यायों की प्रवृत्ति होती है, जहाँ न्याय की प्रवृत्ति से अनिष्ट स्त्य सिद्ध होता हो वहाँ न्याय की प्रवृत्ति नहीं होती है, अतः प्राय: ये सब न्याय अनित्य ही है तथापि पूर्ववर्ती न्यायवृत्ति के टीकाकार ने कहीं भी न्यायों की अनित्यता बतायी नहीं है।"18 न्यास में ही आगे 'स्वं रूपं शब्दस्याशब्दसंज्ञा' न्याय के 'शब्दसंज्ञा' शब्द की स्पष्टता करते हैं, उसमें भी 'प्राक्तन्यां न्यायवृत्तौ' शब्द है। आगे चलकर बृहन्न्यास
16. द्रष्टव्यः जैनेन्द्रमहावृत्ति पृ. ५० (भूमिका) 17. 'तेषां चानित्यत्वमुपेक्ष्य व्याख्योदाहरणज्ञापकानामेव प्रज्ञापनी कनीयसी टीका कैश्चित्प्राचीनानूचानैश्चके। (न्यायसंग्रह -
बृहद्वृत्ति, पृ. १) 18. न्यायाः किल सर्वेऽपि 'सिद्धि: स्याद्वादात्' १/१/२ इति भणनात् यथाशिष्टप्रयोगं क्वचित् प्रवर्त्यन्ते क्वचिच्च न प्रवर्त्यन्ते
इति प्रायो अनित्या एव सन्ति; न च तेषामनित्यता प्राक्तनटीकाकारेण क्वापि प्रकटितेति भावः ॥ (न्यायसंग्रह -
स्वोपज्ञन्यास, पृ. १५७) 19. प्राक्तन्यां न्यायवृत्तौ त्वशब्दसंज्ञेतिपदस्य, यदि पुनः शब्दः संज्ञारूप: स्यात्तदा रूपस्याग्रहणमिति व्याख्याऽस्ति ।(न्यायसंग्रह
स्वोपज्ञन्यास पृ. १५८)
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org