Book Title: Nandanvan Kalpataru 2002 00 SrNo 08
Author(s): Kirtitrai
Publisher: Jain Granth Prakashan Samiti

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Page 27
________________ अलङ्कारनेमिः विजयशील ॥१॥ ॥२॥ ॥३॥ ॥४॥ निर्दोषं गुणकलितं, सद्ब्रह्मालङ्कृतं सुकाव्यमिव । यज्जीवनं, प्रकुर्वे, तन्नेमिगुरोः स्तवनरचनाम् श्रीनन्दनसूरीश्वर-निर्देशाच्छीलचन्द्रनामाऽहम् । विदधे सद्गुरुभक्त्या, ग्रन्थमलङ्कारनेम्यभिधम् ॥ उपमा सद्बोधदीप्तिभासुर ईष्ट योऽज्ञानतिमिरमपहर्तुम् । सूर इव नेमिसूरि-विहरत्वनिशं स शासनाकाशे ।। अनन्वयः ऐदंयुगीनगच्छा-धिपेषु दुर्द्धर्षतेजसा भाति । श्रीनेमिर्नेमिरिव प्रतापपुञ्जः प्रधानतमः ॥ उपमेयोपमा यस्य प्रौढप्रताप-श्चकास्ति मार्तण्डताप इव चण्डः । तापोऽर्कस्य च स इवा-ऽसौ जयतान्नेमिसूरिवरः प्रतीपम् - १ त्वत्प्रवचननिर्घोषै-स्तुल्यं गर्जन्त्यरण्यके हरयः । त्वामुपमिन्वन्ति मुधा, विबुधा हरिणा दयालुहृदय ! गुरो ! प्रतीपम् - २ रे जलद ! माऽवलेपं, कुरु निजगर्जारवस्य प्रखरत्वे । यत् तदुपममिह नेमिः, सूरिर्गर्जति हि देशनासमये प्रतीपम् - ३ चेन्नेमिसूरिवदनं, दृष्टं तद्वाक् श्रुता च भवविपिने । हरिदर्शन-तद्गर्जा-कर्णनमस्त्यर्थहीनमिह ॥५॥ ॥६॥ |७|| ॥८॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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