Book Title: Nandanvan Kalpataru 2002 00 SrNo 08
Author(s): Kirtitrai
Publisher: Jain Granth Prakashan Samiti

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Page 45
________________ - ॥१४६॥ ॥१४७॥ ॥१४८॥ ॥१४९॥ उत्तरम् को विबुधो विबुधानां? दुष्कर्माऽऽसेवको भवेत् कीदृग् ? । कोऽस्माकं तीर्थानां चोद्धर्ता भवति ? गुरुरेव सूक्ष्मम् घनगर्जनानुकारि-त्वत्प्रवचनघोषणां समाकर्ण्य ।। उत्सूत्रभाषिभिः किल वेतसयष्टिः प्रदशिताऽन्योन्यम् पिहितम् दुर्वादिदर्पमर्दन-निपुणं गुरुवर ! भवन्तमभिवीक्ष्य । वस्त्रैर्दुण्ढकलिङ्गः-स्वकीयवदनानि पिहितानि व्याजोक्तिः "भयविह्वला नहि वयं किन्त्वस्ति त्वरितमद्य कार्यवशात् ।" इति जल्पन्तो गुरुवर ! मत्सरिणस्तव पलायन्ते गूढोक्तिः मत्तमतङ्गज ! मत्तो न बिभेष्यन्तःपुरं च भेदयसि । किन्त्वधुना त्वयि रुद्रो वर्तत इह गुरुरिति त्वया ध्येयम् विवृतोक्तिः व्रज भो मत्तमतङ्गज ! त्यज विपिनं मेऽद्य नेमिशरणस्य । इति साकूतं गदितं नेमिगुरोः सेवकेन नृणा युक्तिः शासननिन्दकलोका वीक्ष्य भवन्तं भयात् स्वयं चैव। "वयमभिनन्दामो" गुरु-देवैवं कलकलायन्ते लोकोक्तिः वर्णननिरपेक्षं तव गुणगौरवमस्ति विश्वविख्यातम् । आदर्शदर्शनं नह्यपेक्षते हस्तकङ्कणकम् ॥१५॥ ॥१५॥ ॥१५२॥ ॥१५३॥ ३२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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