Book Title: Nandanvan Kalpataru 2002 00 SrNo 08
Author(s): Kirtitrai
Publisher: Jain Granth Prakashan Samiti
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॥११॥
॥१२॥
नेयं गता वसुमती सह कैरपि प्राङ् नो वा गमिष्यति पुनर्ननु सत्यमेतत् । सद्धर्म एव तव वर्त्मनि मित्रमेकं सर्वं जगत्यवशिनष्टि, मनो निबोध जानन्ति केचिदिह शैशव एव सत्यं प्राग्जन्मजन्यसुकृतेन तपोबलेन । अन्ये भ्रमन्ति नितरां न विदन्ति किञ्चित्सर्वं जगत्यवशिनष्टि मनो निबोध उच्चैर्गतेषु पतनान्मरणं न वार्य लोकापवादभयमस्ति गतेषु नीचैः । यात्रां ततश्शमय मध्यमवर्त्मनैव सर्वं जगत्यवशिनष्टि मनो निबोध । त्यागे रतिं कुरु विरक्तिमथाऽप्यवाप्तौ ताटस्थ्यमेव विशदीकुरु वैभवेषु । आत्मस्थिति जगति सावयपुष्पकल्पां सर्वं जगत्यवशिनष्टि मनो निबोध येनोपदिश्यत इहाऽऽत्मगृहीतसत्यं तज्जीवनं कमलपत्रमिवाम्भसित्वम् जानीहि भद्र ! सकृदेष ततो भणामि सर्वं जगत्यवशिनष्टि मनो निबोध
॥१३॥
॥१४॥
॥१५॥
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