Book Title: Nandanvan Kalpataru 2002 00 SrNo 08
Author(s): Kirtitrai
Publisher: Jain Granth Prakashan Samiti

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Page 49
________________ * मनो निबोध। -अभिराजराजेन्द्रमिश्रः ॥१॥ ॥२॥ यनिर्मितं गगनचुम्बि महार्घहर्म्य पुञ्जीकृतञ्च सुखसिन्धुविहारतन्त्रम् । सङ्कल्पितं यदपि कर्तुमथो भविष्ये सर्वं जगत्यवशिनष्टि, मनो निबोध रामाऽभिरामतनुयष्टिरनिन्द्यरूपा पुत्रोऽपि चन्द्रवदनो विनताश्च भृत्याः । तुल्योदराश्च विपदोघसहायवन्तः सर्वं जगत्यवशिनष्टि, मनो निबोध न्यकृत्य शम्भुचरितश्रवणं मृडानीपादाब्जसेवनमथाऽपि मुकुन्दभक्तिम् । यत्साधितस्सपदि जागतिकप्रपञ्चः सर्वं जगत्यवशिनष्टि, मनो निबोध प्रक्षालितं तनुमलं खलु कूपनीरै -- र्गाङ्गैर्जलैर्विशदितो न परं चिदात्मा । तीर्थानि हन्त न च दृग्विषयीकृतानि सर्वं जगत्यवशिनष्टि, मनो निबोध संसेविताः खलधियोऽतनुलाभसिद्ध्यै यद् वञ्चिताः सहृदयाश्च परार्थबुद्धया । आत्मा कलङ्कित इहैव पशुप्रवृत्त्या सर्वं जगत्यवशिनष्टि, मनो निबोध ||३|| ॥४॥ ॥५॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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