Book Title: Mulachar Purvardha Author(s): Vattkeracharya, Gyanmati Mataji Publisher: Bharatiya GyanpithPage 17
________________ कर्म, मध्याह्न की देववंदना में दो, पुनः अपराह्न के स्वाध्याय में तीन आर दवसिक प्रतिक्रमण में चार, रात्रियोग प्रतिष्ठापना में योगभक्ति का एक, अनन्तर अपरालिक देववन्दना के दो और पूर्वरात्रिक स्वाध्याय के तीन कृतिकर्म होते हैं । सब मिलकर २८ कृतिकर्म हो जाते हैं। अनगार धर्मामृत आदि में भी इस प्रकरण का उल्लेख है। कृतिकर्म की विधि दोणदं तु जधाजादं बारसावत्तमेव च । चदुस्सिरं तिसुद्ध च किदियम्मं पउंजदे। अर्थात् यथाजात मुनि मन वचन काय की शुद्धिपूर्वक दो प्रणाम, बारह आवर्त और चार शिरोनति सहित कृतिकर्म को करे । इसकी विधि-किसी भी क्रिया के प्रारम्भ में प्रतिज्ञा की जाती है, पूनः पंचांग नमस्कार करके, खड़े होकर तीन आवर्त और एक शिरोनति करके सामायिक दण्डक पढ़ा जाता है, पूनः तीन आवर्त एक शिरोनति करके सत्ताइस उच्छवास में नौ बार णमोकार मन्त्र पढ़ते हए कायोत्सर्ग करके, पुनः पंचांग नमस्कार किया जाता है । पुनः खड़े होकर तीन आवर्त, एक शिरोनति करके जिस भक्ति के लिए प्रतिज्ञा की थी वह भक्ति पढ़ी जाती है। इस तरह एक भक्ति सम्बन्धी कायोत्सर्ग में प्रतिज्ञा के बाद और कायोत्सर्ग के बाद दो बार पंचांग नमस्कार करने से 'दो प्रगाम' हुए। सामायिक दण्डक के प्रारम्भ और अन्त में तथा थोस्सामि स्तव के प्रारम्भ और अन्त में तीन-तीन आवर्त और एक-एक शिरोनति करने से बारह आवर्त और चार शिरोनति हो गयीं। यह एक कृतिकर्म का लक्षण है, अर्थात् एक कृतिकर्म में इतनी क्रियाएँ करनी होती हैं। इसका प्रयोग इस प्रकार है "अथ पौर्वाह्निक देववंदनायां'....."चैत्यभक्ति' कायोत्सर्ग करोम्यहम्"। यह प्रतिज्ञा करके पंचांग या साष्टांग नमस्कार करना, पुनः खड़े होकर तीन आवर्त और एक शिरोनति करके सामायिक पढ़ना चाहिए, जो इस प्रकार है णमो अरिहंताणं णमो सिद्धाणं णमो आइरियाणं । णमो उवज्झायाणं णमो लोए सब्वसाणं ॥ चत्तारि मंगलं-अहरंत मंगलं, सिद्ध मंगलं, साह मंगलं, केवलि पण्णत्तो धम्मो मंगलं। चत्तारि लोगुत्तमा-अरहंत लोगुत्तमा, सिद्ध लोगुत्तमा, साह लोगुत्तमा, केवलिपण्णत्तो धम्मो लोगुत्तमो। चत्तारि सरणं पव्वज्जामि-अरहंत सरणं पव्वज्जामि सिद्ध सरणं पव्वज्जामि साह सरणं पव्वज्जामि केवलिपण्णत्तं धम्म सरणं पव्वज्जामि । १. षडावश्यक अधिकार । २. जिस क्रिया को करना हो उसका नाम लेवे। १. जिस भक्ति को पढ़ना हो उसका नाम लेवे। आध उपोद्घात / १५ . Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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