Book Title: Mangal Mandir Kholo
Author(s): Devratnasagar
Publisher: Shrutgyan Prasaran Nidhi Trust

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Page 24
________________ पुनिया का नीति से जीवन व्यतीत करने का प्राण था। अनीति की लाल पाई भी अपने घर में न आ जाये उसकी वह सतत सावधानी रखता और कदाचित् इस कारण ही वह अत्यन्त निर्धन था। इतनी निर्धनता में भी वह नित्य एक सहधर्मी की भक्ति अवश्य रहता था। इसके लिये वह और उसकी धर्म-पत्नी एक दिन छोड़ कर उपवास (व्रत) करते। उसकी धर्म-पत्नी भी धर्म की ज्वलन्त मूर्ति तुल्य थी। एक दिन पुनिया सामायिक करने के लिये बैठा, परन्तु उसका चित्त उस दिन सामायिक में नहीं लग रहा था। अत्यन्त श्रम करने पर भी उसके चित्त में एकाग्रता उत्पन्न नहीं हो रही थी। पुनिया ने सामायिक पूर्ण करने के पश्चात् अपनी पत्नी को पूछा, - "आज अपने घर में अनीतिका कुछ न कुछ आ गया था। क्यों ठीक है न?" तब उसकी पत्नी ने स्पष्ट इनकार किया। पुनिया ने पुन: कहा, "तू अच्छी तरह सोच कर उत्तर देना, क्योंकि आज मेरा मन सामायिक में लग ही नहीं रहा था। ऐसा कभी नहीं हुआ। इससे प्रतीत होता है कि निश्चित रूप से कुछ गड़बड़ी होनी चाहिये। हमारे घर में अनीति का कुछ भी आया होना चाहिये, अन्यथा मेरे मन की प्रसन्नता कभी कम नहीं होती।" कुछ समय तक सोचने के पश्चात् उसकी धर्म-पत्नी को अचानक कुछ स्मरण हुआ और वह बोली, "स्वामिनाथ! पड़ोसी के उपलों के पास हमारे उपल भी पड़े हुए थे। हमारे उपले लाते समय एक-दो उपले भूल से उनके भी हमारे घर में आ गये हों, ऐसा प्रतीत होता है। उतावल में मेरी भूल हो जाने की संभावना है।" पुनिया ने तुरन्त कहा, "बस, ठीक है। सामायिक में एकाग्रता नहीं आने का कारण मुझे ज्ञात हो गया।" "जा, तुरन्त जा और पड़ोसी का उपला उन्हें लौटा कर सा।" और जब वह पड़ोसी को उपला लौटा आईतब ही पुनिया को शान्ति मिली। पति की इतनी सावधानी देखकर पत्नी के अन्तर में ऐसे पति की पत्नी बनने का गौरव उभर आया। यदि अनीति का एक उपला (कण्ड़ा) पुनिया के चित्त की प्रसन्नता का हरण कर सकता है तो जिस व्यक्ति के जीवन में अनीति-अन्याय, झूठ-विश्वासघात और मेल-मिलावट की अपार कमाई प्रविष्ट हो चुकी हो ऐसे व्यक्तियों के सख-शान्ति पूर्णत: नष्ट हो जायें तो आश्चर्य ही क्या है? उस प्रकार के मनुष्य धन होते हुए भी निर्धन की सी मनोदशा का अनुभव करते हो, भोग-सुखों के होते हुए भी वे भिखारी की सी अन्तर्दशा भोग रहे हों, उसमें तनिक भी आश्चर्य की बात नहीं है। शास्त्रों का उपदेश-नीति विषयक 'नीति से ही धन उपार्जन करना चाहिये' - जैन शास्त्रकारों के ऐसे उपदेश को अत्यन्त मार्मिकता से समझने की आवश्यकता है, अन्यथा महान् अनर्थ हो सकता है।

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