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न तो परलोक का भय है और न जगत् में अपमानित होने का भय है। वे तो सर्वथा निर्लज्ज हो गये हैं। ऐसे मनुष्यों को मनुष्य कहना भी एक प्रश्न है अथवा इन्हें अधमों में भी अधम कहा जाये। 'पाप' किसे कहते हैं?
___ प्रश्न-आपने बताया कि आर्यावर्त का कोई भी मनुष्य पाप नहीं करेगा, परन्तु यह तो बताओ कि पाप कहते किसे हैं?
उत्तर - आपका प्रश्न सुन्दर है। सामान्यतया जैन शास्त्रों में अठारह प्रकार के पाप बताये है - 1.हिंसा, 2. असत्य, 3. चोरी, 4. अब्रह्म, 5.परिग्रह,6.क्रोध, 7.मान, 8.माया, 9. लोभ, 10. राग, 11. द्वेष, 12. कलह, 13. जालदेना, 14. चुगली करना, 15. रति एवं अरति करना, 16. दूसरों की निन्दा करना, 17.माया पूर्वक असत्य कहना, 18. मिथ्यात्व।
इन के अतिरिक्त भी कुछ अन्य पाप हैं जैसे - सात महा व्यसन - 1. मदिरा पान, 2. मांसाहार, 3. शिकार, 4. जुआ खेलना, 5. परस्त्रीगमन करना (स्त्रियों के लिये पर पुरुष गमन करना),6. वेश्यागमन करना और 7.चोरी करना।
इन सात व्यसनों को आर्य देश के समस्त धर्म ‘पाप’ मानते हैं और उनको त्याग करने का उपदेश देते हैं।
इनके अतिरिक्त भोजन से सम्बन्धित भी सात पाप हैं - 1. शहद खाना, 2. मक्खन खाना, 3. कन्दमूल खाना, 4. रात्रि भोजन करना, 5. विगयों का अधिक उपयोग करना, 6. विदल अर्थात् कच्चे दूध अथवा दही के साथ कोई कठोल खाना, 7. बासी भोजन करना (अचाररोटी आदि)
ये सात भोजन सम्बन्धी पाप हैं, इन्हें छोड़ना ही चाहिये।
इनके अतिरिक्त वर्तमान समय में अन्य पापी भी हैं - जैसे गर्भपात कराना, तलाक लेना, परिवार नियोजन के साधनों का उपयोग करना, चित्रपट देखना और तड़क-भड़क के वस्त्र पहनना। इनके अतिरिक्त शीतल पेय, बर्फ, आईस्क्रीम, पान, तम्बाकू, सिगरेट, अण्ड़ों आदि से युक्त अभक्ष्य चॉकलेट और कैडबरी की वस्तुएं खाना।
___ संक्षेप में पाप वह है जिसके कारण इस लोक अथवा परलोक में पाप करने वाले जीव को दुःख भोगना पड़े।
इस प्रकार के समस्त पापों को (अथवा यथा शक्ति समस्त पापों को) जीवन में से निष्कासित करना चाहिये।
पापों को जीवन में से तिलांजलि देने के लिये पापों से भयभीत होना चाहिये। भय भी कैसा? अपार भय। जिस प्रकार 'अरे साँप' इस प्रकार किसी को बोलता सुनते ही देह काँपने लग जाती है उसी प्रकार से पाप का नाम सुनते ही भय लगना चाहिये।
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