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शूल तुल्य चिन्ताएं व्याप्त हो जाती हैं। यदि आपकी पुत्री युवावस्था में विवाह से पूर्व ही व्यभिचार आदि के कुमार्ग पर चली गई हो तो क्या वह आपके ही जीवन की किसी गम्भीर भूल का परिणाम नहीं हो सकती ? क्या वह आत्म-निरीक्षण करने की बात नहीं है ?
यदि आपकी दृष्टि परस्त्रियों के प्रति विकारी हो जाती होगी तो क्या उसका प्रभाव आपकी सन्तानों पर नहीं पड़ेगा ? यदि आपके ही जीवन में चोरी, जुआ, मदिरा-पान आदि पाप प्रविष्ट हो चुके होंगे तो उनकी पुनरावृत्ति आपके पुत्र-पुत्रियों में नहीं ही होंगे यह कैसे कहा जा सकता है ? और फिर भी यदि वैसा कुछ न हो तो आप आश्चर्य मानना और मानना कि आप के किन्हीं पूर्वजों के पुण्य ने ही आपकी सन्तानों को बचा लिया है। अन्यथा आपका दुश्चरित्र तो उन्हें उन पापों की ओर निश्चय ही खींच ले जाता। उल्टे गणित के भ्रम-जाल का त्याग करो
मूल बात तो यह है कि वर्तमान विश्व में भोगवाद इतना भयंकर रूप से फैला है कि मनुष्य सुख के साधनों की ओर अंधा होकर दौड़ा है और वर्तमान विश्व का गणित भी सर्वथा उल्टा ही है न ? ज्यों-ज्यों जिसके पास भोग-सुखों की साधन-सामग्री अधिक होती है त्यों-त्यों वह व्यक्ति बड़ा और जिसके पास भौतिक सुख-सामग्री अल्प होती है त्यों-त्यों वह व्यक्ति छोटा है, तुच्छ है। ऐसे उल्टे गणित के कारण वर्तमान मनुष्य अधिकाधिक भोग-साधनों का संग्रह करने की रोकेट-स्पर्धा में सबके साथ सम्मिलित हो गया और इस कारण उसे अकरणीय कार्य, निन्द्य प्रवृत्तियां करनी पड़ी।
यदि इस उल्टे गणित के भ्रम-जाल में से मुक्त होकर आप तनिक आध्यात्मिक दृष्टि से सोचेंगे तो आपको अपनी मर्खता समझ में आये बिना नहीं रहेगी। कितने वर्षों का है यह जीवन। पचास, साठ, सित्तर वर्ष, अस्सी वर्ष। इसमें भी कितने वर्षों का बहुमूल्य समय तो खाने में, पीने में, नींद करने आदि में व्यर्थ चला जाता है ? तो कितने वर्षों के भोग-सुखों के लिये ऐसे घोर निन्द्य पापों का आचरण करना है ? और अन्त में इस सबका परिणाम ?
निन्दनीय प्रवृत्तियों के आचरण से इस भव में लोगों में बदनामी, तुच्छता की प्राप्ति, सज्जन के रूप में हमारी प्रतिष्ठा धुलकर साफ, जीवन का पाप-पथ पर प्रयाण और अन्त में नरक आदि दुर्गतियों के द्वारा खटखटाना। अनेक प्रकार के घोर अनर्थों के निमंत्रक एवं जीवन में अपयश - अपकीर्ति प्रदान करने वाले सन्तानों के जीवन में भी विपरीत आदर्शों को जाने-अनजाने खड़े करने वाले निन्द्य पापों को जीवन में से निष्कासित करें।
. इनसे उत्पन्न होने वाले अत्यन्त कटु परिणमों के सम्बन्ध में विचार किया जाये तो प्राय: उन पापों का परित्याग करना अधिक कठिन तो नहीं ही प्रतीत होगा। किसी भी बात के गहरे परिणामों का दीर्घ-दृष्टि से विचार किया जाये तो उसका सार-संसार हमें अवश्य समझ में आ सकता है और एक बार वस्तु के सार-असार का भान होने पर असार का परित्याग करने और सार को ग्रहण करने का कार्य प्राय: सरल हो जाता है।