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यद्यपि समस्त मनुष्य इन महानुभाव के समान अपरिग्रही जीवन नहीं भी जी सकें, सबका उतना सामर्थ्य एवं तैयारी न भी हो, फिर भी ये एक आदर्श अपरिग्रही श्रावक कैसा होता है उसके वास्तविक नमूने हैं। उनसे हमें इतनी प्रेरणा अवश्य लेनी चाहिये कि हमें व्यर्थ एवं निरर्थक व्यय करने से दूर रहना चाहिये। धर्म-बिन्दू का उपदेश
धर्म-बिन्दू प्रकरण की टीका में एक श्लोक है - आय व्यय मनालोच्य, यस्तु वैश्रवणायते।
अचिरेणैव कालेन, सोऽत्र वैश्रवणायते।। "जो व्यक्ति अपनी आप का विचार किये बिना वैश्रवण (कुबेर) की तरह धन व्यय करते हैं, वे व्यक्ति अल्प समय में यहाँ केवल श्रवण करने योग्य ही रह जाते हैं।" तात्पर्य यह है कि आय का विचार किये बिना अंधाधुंध धन का व्यय करने वाले व्यक्ति अल्प काल में निर्धन हो जाते हैं, और फिर वे भाई ऐसे धनवान अथवा करोड़पति थे' ऐसी बातें ही केवल सुनने के लिये रह जाती हैं। धन का चार प्रकार से विभाजन -
पादमायान्निव्विं कुर्यात्, पादं वित्ताय घट्टयेत्।
धर्मोपभोगयोः पाद, पादं भर्तव्य पोषणे।। "अपनी वार्षिक आय के चार भाग करने चाहिये, जिसमें से एक भाग जमा रखना, एक भाग का व्यापार में उपयोग करना, एक भाग धर्म-कार्य में व्यय करना और एक भाग परिवार के जीवन-निर्वाह में व्यय करना।" यदि इस प्रकार व्यवहार किया जाये तो अनेक प्रकार से लाभ होता है, व्यापार में निश्चिन्तता रहती है, स्वधर्मियों को समाधि प्रदान करने में हम सहायक हो सकते हैं, धर्म-कार्य में उल्लासपूर्वक धन का उपयोग किया जा सकता है और अपने परिवार की ओर से भी पूर्ण संतोष प्राप्त किया जा सकता है।
___ 'आवक' शब्द का अर्थ ही अत्यन्त रोचक है। ये तीन अक्षर ही अपना अर्थ सुन्दर रीति से बतलाते हैं। आ = आवश्यक का, व = वापरना, क = कर्तव्य, अर्थात् जीवन में जो आवश्यक वस्तु हैं उनको ही वापरना (उपयोग करना) चाहिये, परन्तु व्यर्थ अनावश्यक शौक की वस्तुओं को खरीदने के मोह में नहीं पड़ना चाहिये। अनर्थ दण्ड के पाप त्यागो
आधुनिक समय में रेडियो, टी. वी., वीडिया, फ्रिज, एअर कन्डीशनर, होटलों, नाटकों आदि में अंधाधुंध व्यय किया जा रहा है। ये समस्त वस्तुएं जीवन-निर्वाह के लिए अनिवार्य नहीं हैं। इनके प्रभाव में मनुष्य जीवित नहीं रह सके ऐसी बात नहीं है। इसलिये शास्त्रकार इन समस्त वस्तुओं को अनर्थदण्ड का पाप कहते हैं। इन अनर्थ दण्ड के पापों को जीवन में से शीघ्रातिशीघ्र तिलांजलि
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