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आदि के सम्बन्ध में बातें सुनकर अत्यन्त प्रसन्न हुए।
परन्तु इस प्रकार शिष्य के द्वारा आत्म-प्रशंसा करा कर धर्मदत्त मुनि ने माया के पाप का आचरण किया था जिसके फलस्वरूप जन्मान्तर में उन्होंने नारी का भव प्राप्त किया। अपनी सच्ची प्रशंसा भी नहीं करनी चाहिये - कोई व्यक्ति यदि तर्क प्रस्तुत करें कि "अपने सद्गुण की सच्ची बात अन्य व्यक्ति को कहने में क्या बराई है?" इस बात के उत्तर स्वरूप उपर्युक्त कथा है।
___ अपनी सच्ची प्रशंसा भी हमें स्वयं करानी नहीं चाहिये अथवा हमारे साथियों आदि के द्वारा करानी नहीं चाहिये।
इसी प्रकार से किसी अन्य व्यक्ति की बुराई भी हमें करनी नहीं चाहिये अथवा अपने साथियों के द्वारा करानी नहीं चाहिये।
" अपनी स्वयं की प्रशंसा करना नहीं चाहिये और अन्य व्यक्तियों की निन्दा नहीं करनी चाहिये।" ये तो हमारी भारतीय संस्कृति के नींव के गुण थे और कदाचित् इस कारण ही प्राचीन काल में राजा जब स्वयंवर में जाते तब उनके गुणों का वर्णन स्वयंवरा कन्या के समक्ष अन्य दासी आदि करती। राजा लोग स्वयं अपने वास्तविक गुण-शूर वीरता, साम्राज्य और सदाचार के सम्बन्ध में कदापि कुछ नहीं कहते थे। तीन उंगलियाँ आपकी ओर -
दूसरों की निन्दा करते समय जब आप उनकी ओर उंगली करते हैं तब अन्य तीन उंगलियाँ आपकी ओर होती हैं। इस बात से यह सूचित होता है कि जिस व्यक्ति की आप निन्दा कर रहे हैं, जिस व्यक्ति के दोषों की आप बातकर रहे हैं उस व्यक्ति से तीन गुने दोषी आप स्वयं है।
अब आपको दूसरों की निन्दा करने का क्या अधिकार है ? यदि हम स्वयं ही असंख्य दोषों से युक्त हैं तो अन्य व्यक्तियों के दोषों की पंचायत करने का हमें कोई अधिकार नहीं हैं।
कबीरदासजी ने कहा है कि - "मो सम कोन कुटिल, खल, कामी। जिसने यह तनु दियो, उसको ही विसरायो ऐसो निमकहरामी।"
मेरे समान कुटिल, खल (दुष्ट) एवं कामी अन्य कौन है। मुझे यह देह जिसने प्रदान की (भगवान ने ही यह देह आदि हमें प्रदान की है, उस मान्यता के अनुसार ये पंक्ति है) उसे ही मैंने भुला दिया, मैं तो ऐसा नमक हरामी हूँ।
यह बात सब पर लागू होने जैसी है। यदि हम स्वयं कदाचित कुटिल, दुष्ट एवं कामी हैं तो हम किसी अन्य के अवगुणों के प्रति घृणा रखने के अथवा प्रदर्शित करने के अधिकारी नहीं हैं।
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