________________
GOOGee909090907
साधु ने अपने बचाव के लिये लोगों की बात का तनिक भी प्रतिकार नहीं किया, उस युवती की तनिक भी उन्होंने निन्दा नहीं की। अत: वह स्त्री अधिक उत्तेजित हुई। उसने वह बालक उस साधु के समीप ही लाकर रख दिया। साधु ने उस निर्दोष बालक का पालन-पोषण करना प्रारम्भ कर दिया।
अब तो वह स्त्री व्याकुल हो गई। ज्यों-ज्यों वह साधु को सताने का प्रयास करती गई, त्योंत्यों वह साधु अधिकाधिक क्षमाशील होने लगा।
अन्त में उस स्त्री को अत्यन्त पश्चाताप हुआ। उसने साधु के चरणों में गिरकर क्षता याचना करते हुए कहा ''साधु महाराज! मुझे क्षमा करें। मैंने आपका घोर अपराध किया है। आपको बदनाम करने के लिये मैंने अनेक प्रयन्त किये हैं।"
तब भी साधु ने वहीं वाक्य कहा, "अहो! क्या यह बात है?"
कैसी अद्भुत क्षमा! निन्दक का भी कोई प्रतिकार नहीं। उल्टा उसके बालक को भी पूर्ण वात्सल्य पूर्वक सहलाने की चिन्ता। जब क्षमा आत्मसात् हो जाती है तब ही इस प्रकार का धैर्य आ सकता है। निन्दक भी हमारा उपकारी
स्मरण रखने योग्य बात है कि निन्दक आपके जिन दुर्गुणों के लिये आपकी निन्दा करताहै, वे दुर्गुण यदि आप में हो तो उन्हें दूर करने का आपको अवसर प्राप्त होता है। इससे तो निन्दक आपका ध्यान आपकी भूलों की ओर आकर्षित करने वाला होने के कारण आपका उपकारी
यदि उक्त दुर्गुण आप में नहीं है तो आपको चिन्ता करने की तनिक भी आवश्यकता नहीं है। भविष्य में भी वह दुर्गुण आपके भीतर प्रविष्ट न हो जाये उसके लिये निन्दक आपको बार-बार चेतावनी देता है।
इस प्रकार निन्दक दोनों प्रकार से हमारा उपकारी है यह मानना चाहिये। इससे निन्दा के विरूद्ध प्रति-निन्दा करने की हमारी इच्छा नहीं होगी और समभाव में अवगाहन करने को मिलेगा, यह फिर विशेष लाभ होगा। निन्दक की उपेक्षा करें -
जब कोई व्यक्ति हमारी निन्दा करे तब "वह भूल से मेरा नाम लेता प्रतीत होता है" - यह सोचकर उसकी ओर ध्यान ही मत दीजिये, निन्दक की उपेक्षा कीजिये।
मुझे एक चुटकला याद आया है। रमेश एवं धर्मेश यों तो दोनों गहरे मित्र थे, परन्तु किसी कारण वश उनके परस्पर ठन गई। रमेश की इच्छा धर्मेश को गालियां देने की हुई, जिससे उसने उसे फोन किया। फोन पर ही रमेश ने उसे अनेक गालियां देना प्रारम्भ किया, परन्तु धर्मेश झगड़े को बढाना नहीं चाहता था।अत: उसने कोई प्रतिकार नहीं किया, गालियों का कोई उत्तर नहीं दिया।
MOROSC0099 98509090