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और कदाचित् कॉलगर्ल अथवा कुट्टनियों की कुसंगति में फँसाते हों तो ऐसे मित्रों से सचेत रहें। वे मित्र आपके जीवन के, आपकी सज्जनता के, आपके द्रव्य-धन के, आपके भाव-धन के और आपके समस्त सद्गुणों के लुटेरे हैं। वे आपके मित्र नहीं है, आपके भयानक शत्रु हैं। ऐसे शत्रुओं को तो सौ गज की दूरी से ही प्रणाम करके दूर हट जाना चाहिए।
काले विषैले नाग से भी अधिक भयानक है कुमित्रों की संगति। क्योंकि काला नागतो केवल एक बार ही हमारे द्रव्य-प्राण को लूटता है, जबकि दुष्ट मित्र तो हमारे आत्म-गुणों रूपी भावप्राण हर लेते हैं।
जिस किसी को अपना 'जिगरी दोस्त' अथवा प्रिय सखी' बनाने से पूर्व पुरूषों एवं स्त्रियों को अत्यन्त सावधान रहना चाहिये। इस प्रकार का अंधा साहस कभी-कभी जीवन का अत्यन्त अध:पतन करने में समर्थ हो जाता है, क्योंकि वर्तमान काल के अधिकतर मित्रों की दृष्टि आपकी धन-सम्पत्ति पर ही होती है। जिनके मन मैले हैं, जीवन अपवित्र हैं, स्वार्थ पूर्ण मनोवृत्तियाँ हैं, वे मित्र अथवा सखीजीवन के लिये किस प्रकार लाभदायक हो सकते हैं?
जिनकी वाणी, वृत्ति एवं व्यवहार तीनों दूषित हो चुके हों उन मनुष्यों को मित्र बनाने की अपेक्षा मित्र नहीं होना ही श्रेयस्कर है। "नहीं मामा की अपेक्षा काना मामा अच्छा'' इस उक्ति की तरह "अच्छा मित्र नहीं हो तो अपनाया नहीं जा सकता। जिनके जीवन में अनेक दूषण प्रविष्ट हो गये हैं ऐसे युवक-युवतियों की यदि सचमुच गहराई से छानबीन की जाये तो हमें प्रतीत होता है कि उनके अध:पतन के मूल में प्राय: किसी न किसी दुष्ट मित्र अथवा दुष्ट सहेली की कुसंगति ही कारण भत होगी, यह बात निश्चित है। स्कूलों, कॉलेजों और विशेषत: छात्रावासों में माता-पिता के सान्निध्य रहित जीवन यापन करने वाले किशोर एवं किशोरियों के जीवन अनेक प्रकार की बुराईयों में फंस गये हो तो उसमें कारणभूत है - किसी न किसी का कुसंग। इसलिये पूर्णत: जाँच किये बिना माता-पिताओं को चाहे जैसी संस्थाओं में अथवा छात्रालयों में अपने बालकों को भेजना अत्यन्त अहितकारी है। कुदृश्यों का कुसंग
कमित्रों के समान ही बरा संग है कुदृश्यों का। कदश्य अर्थात कत्सित चित्र, सेक्स से परिपूर्ण अश्लील चित्र एवं दृश्य, मन में विकार उत्पन्न करने वाली ब्लू फिल्में और ब्लू फिल्मों का दर्शन। ऐसी अश्लील फिल्मों एवं विकृत चित्रों का दर्शन जीवन के आन्तरिक सत्त्व एवं सौन्दर्य का संहारक समस्त संसार का शत्र है। जो व्यक्ति अपना जीवन मंगलमय बनाना चाहते हों,सदाचारी एवं सद्विचार युक्त बनाना चाहते हो, उन्हें विकृत के पोषक कुदृश्यों को तिलांजलि देनी ही चाहिये।
जिसे देखने से कदाचित् क्षणिक कृत्रिम आनन्द की अनुभूति होती है, परन्तु उसके द्वारा परिपोषित कुसंस्कार आत्मा का अत्यन्त अहित करते हैं, दुर्गति के द्वार खोल देते हैं और अनेक भवों के लिये मानव अथवा देव जैसी गतियों से हमें वंचित कर देते हैं और वृक्ष, पौधों अथवा निगोद के
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