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समय उसने अपने मामा के पास जाने के लिये प्रस्थान किया। वहाँ पहुंचने पर आचार्य महाराज ने कहा "हमारे पास आत्म-कल्याणकारी विद्याऐं तो हैं, परन्तु उन्हें प्राप्त करने के लिये तुझे संसार का त्याग करके दीक्षा ग्रहण करनी पड़ेगी। बोल, तैयार हैं ?"
"गुरुदेव। जिस काम में मेरी माता प्रसन्न होती हो उसके लिये मैं पूर्णत: तैयार हूँ। आप मुझे दीक्षित करें और वे आत्म-कल्याणकारी विद्याएँ मझे प्रदान करें, "आर्यरक्षित ने कहा। आचार्य महाराज ने उसे दीक्षित कर दिया, शास्त्रों के मर्मों एवं तत्वों का अध्ययन कराया और परिणामस्वरूप जैन जगत् को एक परम विद्वान युग-प्रधान जैनाचार्य भी आर्यरक्षितसूरिजी की प्राप्ति हुई। यदि आर्यरक्षित में मातृ-भक्ति नहीं होती तो क्या वह केवल माता की प्रसन्नता के लिये मामाआचार्य के पास जाता ? नहीं जाता, और क्या जैन संघ को महान् आचार्य की प्राप्ति संभव होती? नहीं, इसका अर्थ यह हआ कि आर्यरक्षित के आत्म-कल्याण में और जैन संघ के महान् आचार्य प्राप्त करने में आर्यरक्षित की मातृ-भक्ति ही श्रेष्ठ निमित्त बनी।
श्री हेमचन्द्रसूरीश्वरजी की मातृ-भक्ति -
माता-पिता की भक्ति तो जीवन में समस्त सद्गुणों का मंगलमय कारण है। कलिकाल सर्वज्ञ आचार्य भगवान् श्री हेमचंद्रसूरीश्वरजी महाराजा की माता-साध्वी पाहिनी के देहान्त के समय जब जैन संघ ने साढे तीन करोड़ रूपये सुकाम में व्यय करने की घोषणा की, तब आचार्य महाराज ने अपनी माता की मृत्यु के निमित्त पुण्यार्थ साढे तीन लाख नूतन श्लोकों की रचना करने की घोषणा की थी, जिसके फलस्वरूप 'त्रिषष्टि श्लाका पुरुष चरित्र' जैसे विशालकाय महान् ग्रन्थ की श्री जैन संघ को प्राप्ति हुई। इसका कारण कलिकाल सर्वज्ञ भगवंत की अपनी माता के प्रति अद्भुत भक्ति ही है।
श्री रामचंद्रजी की पितृ-भक्ति -
__ श्री रामचंद्रजी की पितृ-भक्ति तो इतिहास में स्वर्णाक्षरों में अंकित है। राम के पिता दशरथ जब किसी अन्य राजा के साथ युद्ध कर रहे थे तब भरत की माता कैकेयी ने रथ चलाने में ऐसी दक्षता प्रदर्शित की कि दशरथ ने प्रसन्न होकर उसे वरदान दिया था, जिसे कैकेये ने उसे थाती के रूप में उनके पास रखा ताकि समय पड़ने पर वह उसे माँग सकें। जब राम का राज्याभिषेक करने की बात चली तब कैकेयी ने सोचा "यदि राम राजा हो जायेंगे तो मेरे पुत्र भरत का क्या होगा ?" अत: वह शीघ्र दशरथ के पास पहुंची और थाती के रूप में रखा हुआ अपना वरदान माँगा कि "मेरे भरत को राज्य-सिंहासन पर बिठाया जाये।"
यह सुनते ही राजा दशरथ व्याकुल हो गये। कैकेयी अपने वरदान की मांग पर अटल रही।
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