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भयानक है। निन्दा की इस दुर्गति-करकता को पहचान कर उसका अवश्य परित्याग करना चाहिये। जीवन में यदि उत्तम सद्गृहस्थ होना हो तो निन्दा का परित्याग आवश्यक है। निन्दा : प्रशंसा का अवसर खो देती है - .
__ निन्दा के रस के कारण अनेक मनुष्य अन्य व्यक्तियों के उत्तम एवं सच्चे सत्कर्मों की भी प्रशंसा नहीं कर पाते। उनके समक्ष जबकोई यह कहता है कि "आपके पड़ौसी मोतीचंद भाई ने संघ में अत्यन्त धन का व्यय किया। लगभाग पांच लाख रूपये व्यय किये होंगे"
तब निन्दक व्यक्ति तुरन्त कहेगा "देखा, देखा पांच लाख रूपये व्यय करने वाला! एक ओर तो लोगों के गले पर छुरी फिराते हैं और दूसरी ओर धर्मात्मा कहलाने के लिए दान देते हैं, संघ निकालते हैं ऐसे व्यक्तियों के धर्म का क्या मूल्य ?
निन्दा की यह वृत्ति अन्य व्यक्तियों के उत्तम धर्म की भी प्रशंसा करने का अवसर खो देती है, अत: इसको जीवन में से निष्कासित ही करनी चाहिए।
विशेषता तो यह है कि ऐसे निन्दक मनुष्य स्वयं के दुर्गुणों की कदापि निन्दा नहीं कर सकते। इतना ही नहीं, अपने जीवन के लघु गुणों को दीर्घ करके बताने का उनका निरन्तर प्रयत्न रहताहै और जब अपनी लकीर को बड़ी करके दिखाने में वे विफल होते हैं तब अन्य व्यक्तियों की बड़ी लकीर को, अन्य व्यक्तियों के सद्गुणों को, काट कर अपनी लकीर को बड़ी बताने का वे प्रयास करते रहते हैं।
परन्तु सत्य बात तो यह है कि उस प्रकार से कोई कदापि महान् नहीं हो सका। जो सचमुच होना चाहता है उसे तो अपने ही जीवन में सद्गुण रूपी लकीरों को बड़ी बनाने का प्रयत्न करना चाहिये, अन्य व्यक्तियों के सद्गुणों रूपी लकीरों के काट डालने का (निन्दा करने का) अधम प्रयत्न कदापि नहीं करना चाहिए। कुन्तलादेवी की ईर्ष्या -
___अहंकार एवं ईर्ष्या उत्तम जीवों का भी मान भुला देती है। उत्तम बात में की जाने वाली ईर्ष्या भी जीव को दुर्गति में धकेल देती है।
एक राजा के अनेक रानियाँ थी, जिनमें मुख्य कुन्तलादेवी थी। वह परमात्मा की पूजाविधि की विशेष ज्ञाता थी। वह नित्य भाव पूर्वक जिन-पूजा करती थी।
उसने अपनी सौतों को भी पूजा करने की विधियों का ज्ञान दिया था, जिससे वे भी विधि पूर्वक जिन-पूजन करने लगी।
शनैः शनैः परिस्थिति में इतना परिवर्तन हो गया कि वे सौत कुन्तलादेवी से अधिक उत्तम प्रकार से जिन-पूजा करने लगी। कुन्तलादेवी यह सहन नहीं कर सकी। वह भी अधिक ध्यान से जिन-भक्ति करने लगी। अधिक तो थी परन्तु उसकी मूल में सौतों के प्रति ईर्ष्या भरी हुई थी। अत्यन्त