Book Title: Mangal Mandir Kholo
Author(s): Devratnasagar
Publisher: Shrutgyan Prasaran Nidhi Trust

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Page 77
________________ विवाह का प्रस्ताव रखा। तब उन दोनों रूपवती रमणियों ने शर्त रखी, "हम जो कहें वही आपको करना होगा, तो ही हम आपके साथ विवाह कर सकती है।" उन पर आसक्त नृप ने उनकी यह शर्त स्वीकार कर ली। कुछ दिनों के पश्चात् चतुर्दशी का दिन आया। प्रत्येक चतुर्दशी को पौषध व्रत की आराधना करने का राजा का प्रण था। एक दिन पूर्व चन्द्रयश नृप ने अपने प्रण के सम्बन्ध में उन दोनों नव-परिणीत स्त्रियों से कहा। तब उन दोनों ने उन्हें पौषध लेने का इनकार कर दिया, “हम आपके बिना नहीं रह सकती, अत: आप पौषध नहीं करें।" राजा ने कहा, "मेरे तो चतुर्दशी को पौषध करने का प्रण है, जिसका भंग में कदापि नहीं करसकता।' "आपको पौषध नहीं करना, हमने आपको स्पष्ट कह दिया है," उन रमणियों ने जोर देकर कहा। चन्द्रयश नृप ने कहा, "परन्तु मेरे प्रण का क्या होगा? क्या मैं प्रण भंग करूं? तो तो मेरी जन्म-जन्मान्तर में भी मुक्ति नहीं होगी। मैं प्रण-भंग तो कदापि नहीं कर सकता।" तब वे देवियें बोली, "स्वामी! आप प्रण-भंग नहीं कर सकते तो क्या वचन-भंग करने के लिये तैयार हैं? आप स्मरण करिये कि विवाह के समय आपने हमें वचन दिया था कि "तुम जैसा कहोगी वैसा मैं करूंगा।" अब आप उस वचन को भंग करने के लिये तत्पर हुए हैं?" नव-विवाहिता रमणियों की बात सुनकर नृप व्याकुल हो गये। अब क्या किया जाये? एक ओर तो प्रण-भंग होता है और यदि प्रण की रक्षा करेंतो वचन का भंग होता है। राजा ने दोनों रमणियों को समझाने का भरसक प्रयास किया परन्तु निष्फल| अन्त में राजा ने निश्चय किया, "यदि मैं जीवित रहता हूँ तो प्रण-भंग अथवा वचन-भंग का अवसर आयेगा न? अत: मैं आज जीवन का ही भंग कर दूंताकि मेरा प्रण भी सुरक्षित रहेगा और वचन भी सुरक्षित रहेगा। अन्यथा प्रण अथवा वचन एक का भी भंग नहीं किया जा सकता।" और तत्क्षण चन्द्रयश नृप ने कमर में से कटार निकाल कर अपनी गर्दन में घुसेड़ दी। परन्तु यह क्या? राजा की मृत्यु क्यों नहीं हुई। दूसरी बार, तीसरी बार, इसी प्रकार से गर्दन पर कटार का प्रहार किया फिर भी राजा की मृत्यु नहीं हुई। तब उसी समय वे दोनों देवियाँ अपने मूल स्वरूप में प्रकट होकर नृप को कहने लगी, "राजन्! आपकी परीक्षा करने के लिये ही हमने यह सब नाटक किया था। प्रण-पालन में आपकी अद्भुत दृढ़ता देखकर हम सचमुच अत्यन्त प्रसन्न हुई हैं।" राजा को भाव-सहित प्रणाम करके वे दोनों देवी वहाँ से विदा हो गई। कैसी वन्दनीय है चन्द्रयश नृप की पाप भीरुता! जिन्होंने प्राण-भंग का पाप करने के बदले मृत्यु को गले लगाना उचित समझा। GOROSCO 2 9000909090

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