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(छठा गुण) निन्दा नहीं कीजे पारकी रे... अवर्णवादी न क्वात्पि, राजादिषु विशेषतः।।
निन्दा-त्याग बड़े-बड़े धर्मात्मा जीवों में भी जब पर-निन्दा करने का अत्यन्त | भारी दुर्गुण दृष्टिगोचर होता है तब सचमुच हृदय व्यथा से व्याकुल हो । उठता है।
ज्ञानी पुरूषों ने जिस निन्दा - त्याग नामक गुण को मार्गानुसारी जीव के स्तर का गुण बताया है, वह गुण यदि देश विरति एवं सर्व-विरति के स्तर तक पहुँचे हुए जीवों में भी दृष्टिगोचर न हो तो उससे किस सद्गुण-प्रेमी आत्मा का हृदय व्यथित नहीं होगा?
निन्दा कदापि किसी की भी उपादेय नही है, फिर भी इस निन्दा का त्यागना कितना कठिन है..... क्यों ? किस लिये ? क्योंकि निन्दा की उत्पत्ति होती है - स्वयं के अहंकार में से। ___ और....अहंकार का परित्याग अति अति कठिन है। अहंकारी मनुष्य प्राय: पर-निन्दक होते हैं और निन्दक अन्य व्यक्तियों के वास्तविक गुणों की भी प्रशंसा नहीं कर पाते। निन्दा क्यों नहीं करनी चहिये ? निन्दा करने से क्या
हानियां हैं ? किसी को सुधारने के लिये भी पर - निन्दा क्यों नहीं करनी चाहिये ? इत्यादि प्रश्नों को उत्तम प्रकार से स्पष्ट करने वाले इस गुण-- विवेचन का पठन-मनन अवश्य हीं करने योग्य है।)
RECESSOR as SCORIESON