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निन्दा का रस छोड़ना कठिन -
निन्दा का रस छोड़ना दुष्कर है, अति कठिन है। निन्दा के पाप का रस अनेक बड़े-बड़े साधु-सन्त भी नहीं छोड़ सकते। मिष्टान्न, फल और मेवों आदि के त्यागी सन्त भी इस निन्दा के रस का परित्याग नहीं कर सके, ऐसे अनेक उदाहरण देखने को मिलते हैं। इससे यह माना जा सकता है कि इन समस्त मधुर एवं स्वादिष्ट खाद्य पदार्थों की अपेक्षा भी कदाचित् निन्दा का रस निन्दक व्यक्तियों के मन में अधिक मधुर होगा।
अनेक बार धार्मिक क्षेत्र में, साधु-साध्वियों में भी तथा उनके अनुयायियों में भी एक तिथि और दो तिथि के नाम पर, सुगुरू और कुगुरू के नाम पर, शास्त्र और सिद्धान्त के नाम पर, सुगच्छ और कुगच्छ के नाम पर, धर्म और शासन - रक्षा के नाम पर स्वयं से विपरीत मन्तव्य रखने वालों के प्रति व्यापक प्रमाण में निन्दा होती है, अब अत्यन्त खेद होता है, दुःख होता है।
महान् गच्छाधिपति एंव व्याख्यान वाचस्पति भी जब परोक्ष रूप से इस प्रकार की निन्दाओं में पूर्ण सहयोग प्रदान करते हुए प्रतीत होते हैं तब प्रश्न उठता है कि इनमें वास्तविक धर्म कहाँ है ? निन्दातिरेक से सामने वाले व्यक्तियों के प्रति भयंकर मानसिक विद्वेष में से निन्दा की चिनगारियाँ उड़ाती पत्रिकाएँ अत्यन्त प्रमाण में प्रकाशित होती दृष्टिगोचर होती हैं तब मन में प्रश्न उठता है कि निन्दा की यह भयंकर दीमक जैन-शासन रूपी भव्य भवन को भीतर ही भीतर खा कर कहीं खोखला तो नहीं कर डालेगी?
निन्दा का रस (स्वाद) अत्यन्त तीव्र होता है। इसकी भयानकता का कोई पार नहीं है। कमरे की छत का पाट चाहे कितना हीं सदढ हो परन्त यदि एक बार उसमें दीमक लग गई तो सड़कर नष्ट होने में उसे तनिक भी विलम्ब नहीं लगेगा। इसी प्रकार से जहाँ निन्दा रूपी दीमक लग जायेगी वे शक्तिशाली संघ, समाज, राज्य, प्रशासन अथवा सम्प्रदाय पूर्णत: नष्ट हो जायेंगे, उनकी नींव कमजोर होकर हिल जायेगी।
यदि वर्तमान दूषित युग में हमें बलवान बनकर जीवित रहना हो तो हमें निन्दा के पाप से सौ कोस दूर रहना चाहिये। साधु एवं वेश्या का दृष्टांत -
निन्दा की भयंकरता के सम्बन्ध में यहाँ एक साधु एवं वेश्या का सुन्दर दृष्टान्त है। वेश्या एवं साधु के आवास आमने-सामने थे। उनके द्वार भी आमने-सामने थे। वेश्या के घर पर अनेक वासना के कीड़े थे। उनके सुख की अभिलाषा से आते रहते थे और उस संत के द्वार पर अनेक व्यक्ति धर्मोपदेशों का श्रवण करने के लिये आते थे।
संत सदा उस वेश्या की निन्दा करते रहते "देखो न यह वेश्या ! अपना अमूल्य मानवभव कैसे नष्ट कर रही हैं ? इससे तो मर जाना अधिक श्रेयस्कर है। छि:, कैसा पशुओं का सा जीवन
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