Book Title: Mangal Mandir Kholo
Author(s): Devratnasagar
Publisher: Shrutgyan Prasaran Nidhi Trust

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Page 92
________________ RRRRRRRRR909090909 ___ मन कदाचित् विकार रहित हो, परन्तु व्यवहार में स्त्रियों से विशेष परिचय हो तो, शिष्टजन उसे मान्य नहीं करते। हाँ, कदाचित् पापोदय के कारण मन विकार-युक्त हो, परन्तु व्यवहार यदि स्त्रियों के परिचय से मुक्त हो तो उस मनुष्य का मन विशुद्ध होने के अनेक अवसर हैं। प्रारम्भ में मन यदि निर्विकारी हो और स्त्रियों के साथ अधिक परिचय हो तो निर्विकारी मन सविकारी होने में तनिक भी विलम्ब नहीं लगेगा। अत: शिष्टजनों के द्वारा सदाचारी व्यक्ति को स्त्रियों के परिचय से मुक्त रहने के आचार को मान्य किया है। हमारे कारण अन्य व्यक्तियों का जीवन नष्ट न हो उस प्रकार से व्यवहार करना शिष्ट जनों का आचार है। एक राजा था जो अत्यन्त उच्च कोटि का सदाचारी था। अन्तर में वह पूर्णत: विकारहीन था, परन्तु रानियों के साथ उसका निरन्तर परिचय रहता था। राजा के इस व्यवहार के सम्बन्ध में गाँव की एक सुशील सन्नारी को पता चला। वह राजा के समीप आई और तिरस्कार पूर्ण दृष्टि से उसकी ओर निहारने लगी। तत्क्षण उस सुशील स्त्री की देह में भयंकर दाह उत्पन्न हो गया। उस समय राजा की रानियों ने कहा- हमारे पवित्र राजा के प्रति सन्देह युक्त दृष्टि से देखने का ही यह परिणाम हैं।" राजा ने उस सुशील नारी को कहा "मेरे स्नान का जल तुम अपनी देह पर छिड़क दो, जिससे तुम्हारा दाह शान्त हो जायेगा।"उस सूशील स्त्री ने ऐसा ही किया जिससे सचमच उसके देह का दाह तुरन्त शान्त हो गया। तत्पश्चात् राजा ने उसे कहा, "अब तो तुम्हें मेरी निर्विकारता पर पूर्ण विश्वास हो गया होगा।" वह सुशील नारी बोली " राजन | आप अविकारी अवश्य हैं, परन्तु उतने मात्र से आपको रानियों के साथ बाह्य व्यवहार भी अनुचित रखने का कोई अधिकार नहीं है, क्योंकि सामान्य जीव तो केवल बाह्य व्यवहार ही देखते हैं। उन्हें आपके अन्तर की बात तो ज्ञात होती ही नहीं। अत: आपको अन्तर की निर्विकारता के साथ बाह्य व्यवहार भी शुद्ध रखना चाहिये।" उस सुशील नारी की बात राजा को उचित लगी और उसने अपने अनुचित बाह्यचार का परित्याग किया। मन की शुद्धता केवल अपना ही हित हित करने वाली है, जबकि बाह्य व्यवहार की शुद्धता अपना और अन्य व्यक्तियों का भी हित करती है। आर्यावर्त के अनेक आचार अपने हित के साथ अन्य व्यक्तियों का हित भी मुख्यत: दृष्टिगत रखने वाले होते हैं। सद्गृहस्थों को यदि अपना जीवन श्रेष्ठ बनाना हो तो स्व-पर दोनों के हितकारी देशाचारों का अवश्य पालन करना चाहिये। इस प्रकार के प्रमुख देशाचारों का पालन करते-करते जीव का शनैः शनैः ऐसा आत्मिक विकास होता जाता है कि जिसे के द्वारा वह उत्तम धर्माचारों का भी पालन करते हुए मुक्ति-पथ पर अग्रसर होता रहता है।

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