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सद्भाव सहित वे समस्त स्वधर्मियों को भोजन कराते ही रहे। इतना ही नहीं राजा ने पूरे आठ दिनों के उपवास किये, परन्तु अपनी प्रतिज्ञा भंग नहीं की।
राजा को अपनी प्रतिज्ञा पर दृढ़ देखकर देवराज इन्द्र प्रसन्न हुए और उन्होंने उसे दिव्य धनुष एवं दिव्य कुण्डल भैंट दिये ।
निस्सन्देह, अतिथियों का अथवा स्वधर्मियों का इस प्रकार सत्कार करने में धन का व्यय करना पड़ता है अथवा अन्य कष्ट सहन करने पड़ते हैं, परन्तु उसके समक्ष जो लाभ हैं वे अपार हैं। उनसे परलोक में तो सुख प्राप्त होते ही हैं परन्तु इस लोक में भी मान सम्मान, यश, लोकप्रियता आदि अनेक लाभ भी अवश्य प्राप्त होते हैं। इस दृष्टि से भी अतिथि सत्कार अथवा स्वधर्मी भक्ति आदि आचारों का अवश्य पालन करना चाहिये।
दया एवं करुणा भी इस देश में सर्व मान्य सदाचार हैं।
भारत के तक सुप्रसिद्ध संत थे। सत्य बात कहने की उनकी एक विशेष आदत थी और सत्य बात कटु होने से कईयों को बुरी लगती है।
इन संन्यासीजी के जिस प्रकार अनेक भक्त थे उसी प्रकार से उनके अनेक विरोधी भी थे, परन्तु वे कदापि किसी की परवाह नहीं करते थे ।
एक दिन उनके विरोधियों ने यह काँटा निकाल देने का निश्चय किया। वे जिस रसोइये के हाथ का भोजन करते थे, उस रसोइये को अपार धन का प्रलोभन देकर विरोधियों ने अपने साथ मिला लिया।
विरोधियों के निर्देशानुसार रसोइये ने संन्यासीजी के भोजन में विष मिला लिया । विष अत्यन्त घातक था। संन्यासीजी को तो रसोइये के प्रति अविश्वास करने का कोई कारण ही नहीं था । अत: इन्होंने वह विष मिश्रित भोजन कर लिया।
थोड़े ही समय में संन्यासीजी पर विष का प्रभाव होने लगा और उन्होंने रसोइये को बुलाकर सत्य बात कह देने का कहा और यह भी कहा कि यदि सत्य सत्य कहेगा तो अभयदान देने का विश्वास दिलाया।
रसोइये ने अपराध स्वीकार कर लिया। संन्यासीजी ने तुरन्त अपने जेब में से बीस रूपये निकाल कर उसे देते हुए कहा, "इन रुपयों से तू तुरन्त रेलगाड़ी का टिकट लेकर अपने वतन में भाग जा। यदि विलम्ब करेगा तो तू पकड़ा जायेगा और मेरे भक्त तेरे टुकड़े-टुकड़ेकर डालेंगे।”
स्वयं ने जिन्हें मार डालने का षड़यन्त्र करने का क्रूर पाप किया है वे संन्यासीजी जब उसे बचाने का प्रयत्न करने लगे तो यह देखकर रसोइये के अन्तर में पश्चाताप का पार न रहा। अविरल अश्रु बहाते हुए उस रसोइये ने संन्यासीजी के चरणों में वन्दना करके उनसे विदा ली और इधर संन्यासीजी का निधन हो गया।
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