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युवती के नूपुर की झनकार सुनी। वह सावधान हो गया। इतने में तम्बू का पर्दा हटा कर एक युवती उसके समक्ष आकर खड़ी हो गई।
उसकी मुखाकृति एवं हाव-भाव आदि देखकर जोगीदास उसकी काम-वासना ताड़ गया, परन्तु उसके लिये तो परस्त्री माता एवं बहन तुल्य थीं।
जोगीदास ने उस युवती को पूछा, “बहन! तू कौन है?"
वह बोली, "मुझे आप बहन मत कहिये। आपका शौर्य देख कर मैं आप पर मुग्ध हूँ। मैं आपकी प्रियतमा बनने के उद्देश्य से आपके पास आई हूँ।"
___ "बहन! तू यह मत भूल कि मुझमें जिस प्रकार शौर्य है, उसी प्रकार से अत्यन्त पवित्रता भी विद्यमान है। प्रतीत होता है कि तूने मेरा शौर्य नहीं देखा। जा, चली जा यहाँ से। मेरे एक हाथ में पिस्तोल है और दूसरे हाथ में माला है। तुझे ग्रहण करने के लिये मेरा एक भी हाथ रिक्त नहीं है" जोगीदास ने कहा।
"मुझे कहीं भी समाविष्ट कर लीजिये। आप मुझे अपनी बन्दूक बना लीजिये अथवा माला बना दीजिये, परन्तु मैं अब यहाँ से लौटने वाली नहीं हूँ" युवती ने कहा।
__"अरे, ए मूर्ख नारी! यह जोगीदास खुमाण है। बागी है परन्तु दुराचारी नहीं है। मुझे अपना भी परलोक दृष्टिगोचर होता है। जा, समझ कर लौट जा, अन्यथा मुझे खींच कर बाहर निकालनी पड़ेगी।"
फिर भी जब वह युवती वहाँ से नहीं गई तो जोगीदास ने अपने एक साथी के द्वारा उसे बाहर निकलवा दी। ऐसे पाप-भीरु एवं सदाचार प्रेमी थे आर्यवर्त के चोर और बागी।
आज तो साहकारों के भेष में जीवन यापन करते श्वेत वस्त्रधारी तथाकथित सज्जन इस प्रकार के जघन्य पाप करते हैं कि जिनका वर्णन करने में हम काँपने लगते हैं।
वर्तमान मानव स्वार्थी ही नहीं, स्वार्थान्ध हो गया है। अपने व्यक्तिगत सुखों, मौज एवं विषय-वासना के लिये अनेक नारियाँ अपने उदर से उत्पन्न होनेवाले बालक की हत्या तक कर डालती हैं और उसे गर्भपात का रूपहरा नाम दे देती हैं। गर्भपात में भी कैसी क्रूरता?
मुझे स्मरण हुआ है उस पल्लवी का! जिसके उदर में सात माह का गर्भ था और उसकी इच्छा गर्भपात कराने की हुई। डाक्टरों एवं परिवारजनों ने इन्कार कर दिया कि, "अब गर्भपात नहीं हो सकता क्योंकि गर्भ बड़ा हो गया है।"
परन्तु पल्लवी नहीं मानी। धन का प्रलोभन देकर उसने एक डाक्टर से बात करके गर्भपात की औषधियाँ खाना प्रारम्भ कर दिया। औषधि की उग्र मात्रा लेने पर भी उदर में बालक की मृत्यु तो नहीं हुई, परन्तु वह उदर में अत्यन्त सन्तप्त होने लगा। और एक दिन माँस-पिण्ड़ के समान वह