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खाने जितना धन अर्जित करना पड़े। यदि तीन व्यक्तियों के खाने जितना धन उपार्जित करने जाये तो धर्म-कार्य में इतना समय कम प्राप्त होगा जो पुनिया को स्वीकार नहीं था।
पुनिया ने अपनी धर्मपत्नी को यह बात कही और दोनों ने मिल कर निर्णय किया, "उपार्जन तो दो व्यक्तियों के लिये पर्याप्त हो उतना ही करना, ताकि धर्म-साधना का समय कम न हो, परन्तु एक दिन पति उपवास करे और एक स्वधर्मी की भक्ति करे तथा दूसरे दिन पत्नी उपवास करे और एक स्वधर्मी को भोजन कराये।"
कैसा अद्भुत निर्णय! धर्म की ज्वलन्तता का प्रतीक तुल्य ऐसा निर्णय यदि धर्मपत्नी कुलीन एवं उत्तम संस्कार युक्त न हो तो क्या संभव है? कदापि नहीं।
इस प्रकार पुनिया के महान् श्रावकत्व में सहायक होने वाली उसकी धर्म पत्नी का योगदान कोई कम नहीं है। स्त्री घर में पूर्णतः स्वतन्त्र
स्त्रियों को स्वतन्त्रता देनी चाहिये - वर्तमान काल में इस नारे के आधार पर स्त्रियों के शील और सदाचार को गौण मान लिया गया है। स्त्रियों को घर की चार दीवारी से बाहर निकाल कर सर्वत्र भ्रमण करने का अवसर प्रदान करना चाहिये ताकि उनका ज्ञान व्यापक हो सके - इस विचारधारा के कारण स्त्रियों को स्वतन्त्रता तो प्राप्त हुई ही, उन्हें विश्व भर का ज्ञान भी प्राप्त हुआ, परन्तु जिन नारियों ने स्वतन्त्रता का लाभ उठाया उन्होंने अपना शील भी खोया, सदाचार को ताक पर रख दिया, जिससे उत्तम धर्म-संस्कारों एवं सांस्कृतिक मर्यादाओं का लोप हो गया।
यदि इस प्रकार की ही नारी जीवन-साथी बनकर आपके घर में प्रविष्ट हो तो उसके हाथों आपकी भावी सन्तान का पालन-पोषण धार्मिक, संस्कारी एवं सद्गुणों से परिपूर्ण होने की आशा कैसे की जा सकती है?
आर्य संस्कृति ने 'न स्त्री स्वातंत्र्यमर्हति' (स्त्री स्वतंत्रता के योग्य नहीं है) ऐसा जो ऋषिप्रणीत सूत्र स्वीकार किया है वह स्त्री को घर से बाहर के क्षेत्र में स्वतंत्रता प्रदान करने के निषेध का सूचक है। अन्यथा अपने घर में तो स्त्री पूर्णरूपेण स्वतंत्र ही है।
बालकों के लालन-पालन, पति-पराणयता, भोजन बनाने और गृह-कार्य में दक्षता आदि बातों में स्त्री सम्पूर्णत: मुक्त है। इस दृष्टि से ही स्त्री को घर की उपमा देने वाले आर्ष वाक्य भी हमारी संस्कृति में दृष्टिगोचर होते हैं। 'गृहिणी गृहमुच्यते' अर्थात् गृहिणी ही घर है।
जो स्त्री अपना घर सम्हालने में समर्थ नहीं है वह बाह्य संसार का चाहे जितना ज्ञान प्राप्त कर ले अथवा चाहे जितनी स्वतंत्रता प्राप्त कर ले, उसका कोई अर्थ ही नहीं है। उल्टा यह विश्व-ज्ञान और स्वतंत्रता उसका और उसके परिवार के सदस्यों का अत्यन्त अहित कर डाले तो भी कोई आश्चर्य की बात नहीं है।
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