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तृतीय गुण विवाह भी किसके साथ?
कुल-शील-स: सामैर्द्व, कृतोद्वाहोऽन्यगोत्रजैः।। उचित विवाह
सर्वाधिक श्रेष्ठ तो है - ब्रह्मचर्य का पालन और जो साधुगण एवं कुछ गृहस्थ इस प्रकार का पालन यथार्थ रूप से करते हैं, निर्दम्भ भाव से करते हैं, वे सभी हमारे लिये वन्दनीय हैं।
ब्रह्मचर्य की इस प्रकार की ज्वलन्त साधना जो व्यक्ति आजीवन नहीं कर सकते, उन संसारी मनुष्यों के लिये 'विवाह करना' अनिवार्य हो जाता है।
ऐसे व्यक्ति विवाह भी क्यों करते हैं? विवाह भोग के लिये है अथवा ब्रह्मचर्य के योग की साधना के अभ्यास के लिये है? विवाह करना तो कहाँ करना चाहिये? कैसे पात्र के साथ करना चाहिये। पात्र का चुनाव करने में अत्यन्त चीवट और धर्म को प्रधानता देना क्यों आवश्यक है? इस प्रकार की शंकाओं का
सतर्क एवं सुतर्क समाधान आपको इस गुण के पठनमनन से प्राप्त होगा। मार्गानुसारी आत्मा को तृतीय गुण है - उचित विवाह।
NORGE 4 SOGDSOSOr