Book Title: Mangal Mandir Kholo
Author(s): Devratnasagar
Publisher: Shrutgyan Prasaran Nidhi Trust

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Page 56
________________ उस नवोदा ने धीरे से लोचनदास को कहा, "आज प्रात: आपने मेरा घर पूछते समय मुझे 'बहन' कह कर सम्बोध किया था न? तो आपकी बहन बनी हुई मुझसे आपके साथ पत्नी' के रूप में व्यवहार कैसे हो सकता है? कोई बात नहीं, इस जीवन में मैं आपकी बहन ही बनी रहँगी। आप किसी अन्य कन्या के साथ विवाह करके अपना जीवन सुखी करें, परन्तु मेरा आपसे निवेदन है कि आप मुझे अपने चरणों की सेवा में रखें। मुझे तो सेवा की भूख है, विषय-वासना की नहीं। मेरी यह प्रार्थना आप स्वीकार करें।" . अपने सुख की अद्भुत बलि देकर पति के सुख की कामना करनेवाली इस नारी के प्रति लोचनदास का हृदय नत हो गया, उसके नेत्रों में अश्रु-प्रवाह छलछला उठा। __लोचनदास ने कहा, "तू मेरे लिये जो बलिदान देने के लिये तत्पर हुई है, उसे मैं व्यर्थ नहीं जाने दूंगा। अब यदि मैं तुझे छोड़ कर किसी अन्य कन्या के साथ विवाह करता हूँ तो कलंकित हो जाऊंगा। अब हम दोनों साथ ही रहेंगे, परन्तु पति-पत्नी के रूप में नहीं, भाई और बहन के रूप में। बोल, फिर तुझे कोई आपत्ति है?" लोचनदास के इस शौर्य पर उसकी पत्नी भी न्यौछावर हो गई। तत्पश्चात् उन दोनों ने आजीवन ब्रह्मचर्य का पालन किया। मोक्ष-लक्षी धम-प्रधान संस्कृति हमारा आर्यावर्त इस प्रकार के सदाचारी एवं ब्रह्मचारी वीर पुरुषों से सुशोभित था। इस देश की धरा पर संतगण ब्रह्मचर्य के गुण-गान करते और संसारी गृहस्थ जीवन में भी यथा शक्ति ब्रह्मचर्य का पालन करते थे। भारत की आर्य प्रजा प्राप्त मानव जीवन का सार मोक्ष-प्राप्ति को और उसका सदुपयोग करने में है यह मानती थी और इस कारण उनके जीवन का मुख्य लक्ष्य मोक्ष रहता है, जिसे प्राप्त करने के लिये धर्म-प्रधान संस्कृति का सुव्यवस्थित आयोजन किया गया है। आज तक इस संस्कृति को समाप्त करने के लिये और उसकी व्यवस्था को तोड़ डालने के लिये अनेक झंझावात आये और गये, परन्तु यह सुव्यवस्था अनेक संतों एवं महा संतों द्वारा आयोजित होने से आज भी अड़िग चल रही है। जिन जिन व्यक्तियों ने इसे उखाड़ फेंकने के प्रयत्न किये वे सब काल के कराल गाल में समा गये। इस सुव्यवस्था को आप धक्का न मारें इस सुव्यवस्था को धक्का मारने का कार्य हमें कदापि नहीं करना चाहिये। हमें अपने व्यक्तिगत स्वार्थों अथवा वासनाओं के लिये उस व्यवस्था को तोड़ डालने की वृत्ति अथवा प्रवृत्ति कदापि नहीं अपनानी चाहिये। कदाचित् यह करने से हमें कभी तत्कालीन लाभ के बदले अल्प लाभ अथवा हानि भी प्रतीत होती हो, परन्तु उसके अन्तिम परिणाम तो निश्चित रूप से लाभदायक ही

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