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वर्तमान समय में जैन साधु भगवानों में जो उत्तम चारित्र के आराधक हैं उनकी उचित प्रमाण में प्रशंसा होती प्रतीत नहीं होती। इस कारण ही चारित्र का पालन करने के प्रति साधुओं में कहीं कहीं उपेक्षा होती दृष्टिगोचर होती है।
इसके विपरीत अधिकतर मनुष्य साधुओं की केवल विद्वत्ता तथा वक्तृत्व शक्ति के उपासक होने लगे हैं। अनेक संघ आग्रह रखने लगे हैं कि "हमें तो प्रभावशाली व्याख्यानकार साधु चाहिये।" परिणाम-स्वरूप साधुओं में भी चारित्र-पालन की अपेक्षा विद्वत्ता एवं व्याख्यान-शक्ति प्राप्त करने की मनोवृत्ति में वृद्धि होती प्रतीत होती है।
यदि साधुओं को उत्तम चारित्र के आराधक बनाना हो तो उत्तम चारित्र पालक मुनियों की अत्यन्त प्रशंसा करनी चाहिये। श्री संघों को भी यही आग्रह रखना चाहिये कि "हमें तो चातुर्मास के लिये उत्तम चारित्र के पालक मुनि ही चाहिये, चाहे वे प्रखर व्याख्याता हों अथवा न भी हों तो चलेंगे।" यदि इस प्रकार की विचारधारा बनेगी तो ही हमारे श्रमण-संघ में उत्तम चारित्रधारों की दिन-प्रतिदिन वृद्धि होती दृष्टिगोचर होगी।
आप विश्व में जिस वस्तु की प्रशंसा करेंगे, उसकी वृद्धि होती जायेगी।
वर्तमान समय में व्यावहारिक शिक्षा की प्रशंसा चारों ओर होती प्रतीत होती है, जिससे लोगों में उसके प्रति आकर्षण में वृद्धि होती जाती है, ग्रामीण मनुष्य, निर्धन व्यक्ति एवं स्त्रियें भी उस शिक्षा को प्राप्त करने के लिये पर्याप्त भोग देने लगे हैं और धन आदि का व्यय भी करने लगे हैं।
जो व्यक्ति अच्छी तरह अंग्रेजी बोलना जानते हों उनका आज बोलबाला है और इस कारण ही अंग्रेजी जैसी विदेशी भाषा के प्रति भारतवासियों का आकर्षण भी तीव्र होने लगा है।
संस्कृत भाषा समस्त भाषाओं की जननी मानी जाती है। इसे 'देव-वाणी' कहकर आर्य संस्कृति में इसका गुण-गान किया गया है, फिर भी उसके ज्ञाताओं एवं पण्डितों की संख्या उत्तरोत्तर घटती ही जा रही है, क्योंकि वर्तमान समय के पाश्चात्य संस्कारों से प्रभावित लोग अंग्रेजी भाषा को जितना महत्व देते है, उससे सौवे भाग का महत्त्व भी वे संस्कृत भाषा को नहीं देते। इस बात का भयानक परिणाम यह होगा कि आज से पचास वर्षों के पश्चात् संस्कृत भाषा का प्रकाण्ड पण्डित भारत में भी खोजने पर नहीं मिलेगा।
इन सब बातों का सार यह है कि सच्चे सद्गुणों और उन सद्गुणों के धारक शिष्ट पुरुषों की पर्याप्त प्रमाण में प्रशंसा होनी चाहिये। यदि शिष्ट पुरुषों के आचार-विचारों की विश्व में अत्यन्त प्रशंसा होगी तो उसका सर्वत्र प्रसार-प्रचार होगा।
अब हमें निर्णय करना चाहिये कि संस्थाओं के उद्घाटन, पुस्तकों के विमोचन, विशिष्ट स्थानों के उद्घाटन आदि उत्तम प्रकार के ब्रह्मचारियों के कर-कमलों से सम्पन्न करायेंगे, बारह व्रतधारी श्रावकों से करायेंगे और उत्तम सदाचार आदि के धारक शिष्टपुरुषों को ही उन प्रसंगों पर
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