Book Title: Maa
Author(s): Chandraprabhsagar
Publisher: Mahima Lalit Sahitya Prakashan

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Page 12
________________ माँ - - - "और मोहि को हैं. काहि कहिहौं । रंक राज ज्यों मन को मनोरथ, केहि सुनाहि सब लहिहौ।" माँ ! तेरे को छोड़कर अन्य मेरा कोई भी नहीं है, चाहे वह फिर बालिका हो, युवती हो अथवा प्रौढ़ा, प्रौढ़ हो, युवक हो या बालक, जिसके समक्ष रंक से राजा बनने का मनोरथ कह कर पूर्ण करू तू ही एक ऐसी महान मूर्ति है जो मेरी बात को सुन सकती है। यहीं तक नहीं अपितु सुनकर चिन्तन, मननादि भी करने वाली ही है, मात्र एक तू ही। सच कहता हूँ एक तू ही। उपर्युक्त दृश्य मेरे मानस-पटल पर अमिट रूप से अंकित हैमास त्रय पूर्व वर्षायोग का पुनीत प्रभात । अनायास एक मानव के मानस में प्रस्फुटित और मुखारविन्द से निकले मां के प्रति गतिमान श्रद्धान्वित शब्द, कृतकृत्य भाव से, कृतज्ञता भाव पूर्ण-जो अपने आप में! अमोल माधुर्य भावों के स्तवक की भांति चुना हुअा गुलदस्ता था। जिसमें ही तो देव विद्यमान है। आप श्री जैसे पुरुषोत्तम पुरुष के घर में नहीं ! कदाचित्... 'नहीं.... नहीं .....! “न देवो र विद्यते काष्ठे न पाषाणे न मृन्मये ।" यह माँ के अपरिमित प्रेम का परोक्ष नहीं पर प्रत्यक्ष प्रभाव है। मांप्रेम.....। माँ-प्रेम.....। मानव-मन विभिन्न भावों का अक्षयकोष है और प्रेम उसका सर्वाधिक महत्वपूर्ण भाव है। मानव-प्राण में प्रेम की भावना अनादिकाल से ही उसके हृदय की धड़कन और रक्त की लालिमा बनकर Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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