Book Title: Maa
Author(s): Chandraprabhsagar
Publisher: Mahima Lalit Sahitya Prakashan

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Page 11
________________ ( च ) सागर जी की असीम कृपा से ही सम्भव हो सका है। दानी-सज्जनों ने उनके संकेत मात्र से वित्त व्यवस्था सुलभ कर दी जिससे पुस्तक प्रकाशन सुचारू रूप से हो गया है। महाराज साहब का आशीवार्दात्मक मंगलमय वरद हस्त अपनी अमूल्य थाती है। उनके प्रति विनीत भावभीनी कृतज्ञताबोधिनी हृदयभावना एवं समर्चना प्रस्तुत करने में लेखक के श्रम की सार्थकता निहीत है। युवा मुनि श्री ललितप्रभ सागर जी ने इस पुस्तक के लेखन-काल में ही प्रतिदिन इसे सुनते हुए अनेक मातृ-पक्षों की ओर लेखक का ध्यान आकृष्ट किया है । वे प्रसंग इस पुस्तक में अनुभव की सार्थकता के साक्षी हैं। परन्तु उनके प्रति कृतज्ञता-ज्ञापन की अपेक्षा एक पथ-सहचर की अनन्य भावना का गौरव बनाए रखना लेखक का अप्रतिम संबल है। इस पुस्तक के लिए 'अभिनंदन' के शब्द लब्ध प्रतिष्ठि समालोचक डा० ओमप्रकाश जी शास्त्री, डी० लिट० ने लिखकर सहृदयता प्रकट की है। उनके हृदयोद्गार प्रकट करने के लिए उनके प्रति आभार प्रकट करना लेखक का कर्तव्य है। अन्त में मुझे केवल इतना ही कहना है कि नैतिकता का जीवन में अकाट्य मूल्य है। नैतिकता जीवन की अलौकिक स्निग्ध शिखा है और माँ उस शिखा की दीप्ति है । यह पुस्तक इसी दृष्टि से आज के युग के मानव के लिए प्रस्तुत की गई है कि वह उसे जीवन में अचित और समन्वित कर सकें ताकि भारतीय. जीवन की दिव्य आधार-शिला "माँ" की ममता के रूप में सदा-सदा के लिए. सुदृढ़ बनी रहे और उसका स्नेहमय प्रदीप मानव-जीवन में अमर स्निग्ध आलोक विकीर्ण करता रहे । सधन्यवाद ! लेखक : नवम्बर, 1982 चन्द्रप्रभ सागर Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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