Book Title: Maa
Author(s): Chandraprabhsagar
Publisher: Mahima Lalit Sahitya Prakashan

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Page 10
________________ मां ही एक मात्र अमोघ शक्ति है। उसी शक्ति का अमोघ दर्शन इस कृति में किया जाता है। ___भारतीय चिन्तन-धारा के महापुरुषों, योगियों एवं सन्तों ने विश्व के प्रसंग में नारी के अन्य रूपों की आलोचना तो अपनी-अपनी पक्षधरता से की है परन्तु जन्मदात्री माँ के प्रति इन सभी विचारकों ने शब्दों की भिन्नता होते हए भी स्वर की एकात्मकता से माँ की वन्दना की है। इसलिए यहां भारतीय विचारकों चिन्तकों, धार्मिक आचार्यों, राजनीतिक विशारदों, समाज उन्नायकों और विश्रत साहित्यकारों के कथन यत्र-तत्र समन्वित किये गये हैं। एक सहज मानवीय स्थिति यह है कि माँ के प्रति जैसी आस्था भारतीय चिन्तन-धारा में है वैसी ही धारणा पाश्चात्य दार्शनिकों, साहित्यिकों और जीवन के अन्य विविध क्षेत्रों के तत्व-चिन्तकों ने भी अपने शब्दों में कही हुई है। इसलिए इस पुस्तक में पाश्चात्य साहित्य के अनेक उद्धरण ससंदर्भ प्रस्तुत किए गए हैं ताकि यह दष्टि निष्कलुष रूप से मानव-मात्र के सम्मुख आ जाए कि मां का स्वरूप, उसकी ममता का विस्तार, दया का प्रस्तार और हृदय की करुणा का आकार इतना हृदयहारी है कि युगों के अन्तराल के पश्चात् भी उसमें विकृति का कोई चिह्न कभी नहीं उभरा है। माँ के प्रति कर्तव्य-भावना चिरयुगीन और चिर नवीन साधना का प्रतीक है । उसके संकेत-बिन्दु पुस्तक के प्राधान्त में बिखरे पड़े हैं। पाठक अपनी रुचि और मनोकामना के अनुकूल देख-पढ़ और स्पर्श करके हृदयंगम कर सकते हैं। परमश्रद्धेय गुरूवर्य प्राचार्य श्री कान्ति सागर सूरि जी के चरणारविंद के रजकणों का ही प्रताप है कि यह अकिंचन शिष्य इस पुस्तक को शब्दरूप दे पाने में समर्थ हो सका है। इस विशाल दृश्यमान जगत् में गुरू-अनुकम्पा शिष्य के लिए सत्प्रेरणा की अग्नि-शिखा का कार्य करती है। अतः गुरुचरणों में प्रणामांजलि सहित अचल भक्तिभावना की स्थिरता का आकांक्षी बने रहने में ही लेखक का चिरकल्याण समाहित है। पुस्तक के प्रकाशनार्थ आर्थिक प्रायोजन पूज्य जैन मुनि श्री महिमाप्रभ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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