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मन्दिर में अमुक दिन शास्त्र-चर्चा होगी, ऐसा निवेदन पुरोहित की ओर से सर्व साधारण को कर दिया गया। अवसर पाकर पुरोहित ने एकान्त में राजा से कहा-"देव! आगन्तुक मुनिजनों के साथ स्थानीय यति शास्त्र-विचार करना चाहते हैं और विचार न्यायवादी राजा की अध्यक्षता में किया जाना शोभा देता है। अतः आप कृपा करके उस अवसर पर सभा भवन में अवश्य विराजें।" इस पर राजा ने कहा-"ठीक है, यह तो हमारा कर्तव्य है।"
तदनन्तर नियत दिन उसी बड़े मन्दिर में श्री सूराचार्य आदि स्थानीय चौरासी आचार्य अपनेअपने मान-सम्मान के साथ आकर बैठ गये। फिर प्रधान पुरुषों ने राजा को आमंत्रित किया। वह भी आकर अपने स्थान पर बैठ गया। तब राजा ने पुरोहित से कहा-"जाओ, तुम अपने मान्य मुनियों को बुला लाओ!" तब पुरोहित ने वहाँ जाकर श्री वर्धमानसूरिजी से प्रार्थना की-"स्थानीय आचार्य परिवार सहित वहाँ आ गये हैं और श्री दुर्लभराज नरेश पञ्चासरीय मन्दिर में आपके पधारने की प्रतीक्षा कर रहे हैं। राजा ने उन स्थानीय आचार्यों को ताम्बूल देकर सम्मानित किया है।" पुरोहित के मुख से यह बात सुनकर श्री वर्धमानसूरिजी ने श्री सुधर्मा स्वामी, श्री जम्बू स्वामी आदि चौदह पूर्वधर युगप्रधान सूरियों का हृदय में ध्यान किया और पण्डित जिनेश्वर आदि कई एक गीतार्थ विचक्षण साधुओं को साथ लेकर शुभ शकुन से सभा भवन को चले। वहाँ पहुँचने पर राजा से निवेदित स्थान पर पण्डित जिनेश्वर द्वारा बिछाये हुए आसन पर आचार्य श्री बैठ गए। राजा इन्हें भी ताम्बूल भेंट करने लगा। तब सब उपस्थित जनता के समक्ष गुरुवर बोले"राजन् ! साधु पुरुषों को पान खाना उचित नहीं है, क्योंकि शास्त्रों में कहा है कि :
ब्रह्मचारियतीनां च, विधवानां च योषिताम्।
ताम्बूलभक्षणं विप्रा!, गोमांसान विशिष्यते॥ [ब्रह्मचारी, यति और विधवा स्त्रियों को ताम्बूल भक्षण करना गौ माँस के समान है।]"
यह सुनकर वहाँ उपस्थित विवेकवान जैन संघ की आचार्य के प्रति बड़ी श्रद्धा उत्पन्न हुई। शास्त्रार्थ-विचार के विषय में गुरुजी बोले-"हमारी तरफ से पण्डित जिनेश्वर उत्तर-प्रत्युत्तर करेंगे और ये जो कहेंगे, वह हमें मान्य होगा।" इसे सुनकर सभी ने कहा कि ऐसा ही हो। इसके बाद पूर्व पक्ष ग्रहण करते हुए, सर्व प्रधान सूराचार्य ने कहा-"जो मुनि वसति में निवास करते हैं, वे प्रायः षड्दर्शन से बाह्य हैं। इन षड्दर्शनों में क्षपणक, जटी आदि का समावेश है, इनमें से यह कोई भी नहीं हैं।" ऐसा अर्थ निर्णय करने के लिए नूतन वादस्थल नामक पुस्तक पढ़ने के लिए उन्होंने अपने हाथ में ली। उस अवसर पर "भावी में भूत की तरह उपचार होता है" इस न्याय का अवलम्बन करके श्री जिनेश्वरसूरि ने कहा-"श्री दुर्लभराज! आपके राज्य में क्या पूर्वपुरुषों से निर्धारित नीति चलती है या आधुनिक पुरुषों की निर्माण की हुई नवीन नीति?" तब राजा ने कहा-"पूर्व पुरुषों की बनाई हुई नीति ही हमारे देश में प्रचलित है, नवीन राजनीति नहीं।" तदन्तर जिनेश्वरसूरि ने कहा"महाराज! हमारे जैन मत में भी ऐसे ही पूर्व पुरुष जो गणधर और चतुर्दश पूर्वधर हो गये हैं, उन्हीं
संविग्न साधु-साध्वी परम्परा का इतिहास
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