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हैं, तो ऐसा कथन भी ठीक नहीं, क्योंकि फिर तो आप भी दर्शन बाह्य हैं । वेदोक्त सम्पूर्ण आचारव्यवहार का पालन शायद आप भी नहीं कर सकते।
इस प्रकार तर्क रीति से बोलते हुए उपाध्याय जी ने सभा में स्थित तमाम लोगों को अचम्भे में डाल दिया और अनेक दोष दर्शा कर मनोदानन्द के प्राथमिक कथन को अव्यवस्थित बतलाया।
फिर भी मानी पण्डित मनोदानन्द धृष्टता से अपने पक्ष को सिद्ध करने के लिए अन्यान्य प्रमाण उपस्थित करने लगा। परन्तु उपाध्याय जी ने अपनी प्रचुर विशाल प्रतिभा के प्रभाव से राजा पृथ्वीचन्द्र आदि समस्त लोगों के सामने असिद्ध, विरुद्ध, अनेकान्तिक आदि दोष दिखलाकर तमाम अनुमानों का खण्डन करके पं० मनोदानन्द को पराजित कर दिया। इतना ही नहीं, उपाध्याय जी ने प्रधान अनुमान के द्वारा अपने आपको षड्दर्शनाभ्यन्तरवर्ती होना भी सिद्ध कर दिया।
ऐसे वाक्पटु जैन मुनि के समक्ष जब कोई उत्तर नहीं दे सका तब अतिलज्जित होकर पं० मनोदानन्द मन ही मन सोचने लगा कि-"यहाँ सभा में बैठने वाले राजा रईस लोगों को जैसा चाहिए वैसा शास्त्रीय ज्ञान का अभाव है। इसीलिए वे लोग अपने सामने अधिक बोलते हुए किसी व्यक्ति को देखते हैं तो समझ बैठते हैं कि यह पुरुष बहुत अच्छा बोलने वाला विद्वान है। अतः इस धारणा के अनुसार मुझे भी कुछ बोलते रहना चाहिए। लोग जान जायेंगे कि पं० मनोदानन्द भी एक अच्छा बोलने वाला वाक्पटु पुरुष है।" ऐसा सोचकर
शब्दब्रह्म यदेकं यच्चैतन्यं च सर्वभूतानाम्।
यत्परिणामस्त्रिभुवनमखिलमिदं जयति सा वाणी॥ [जो एक ब्रह्म शब्दमय है और जो सर्व भूतों (जीवों) का चैतन्य है एवं जिसका परिणाम यह समस्त त्रिभुवन है, वह वाणी जयवंती है।]
इत्यादि पुस्तकों से याद किया हुआ पाठ बोलने लगा।
ऐसा देख कर श्रीमान् उपाध्याय जी ने जरा कोपावेश में आकर कहा-"अरे निर्लज्जों के सरदार! ऐसा यह असंबद्ध क्यों बोल रहा है? मैंने प्रमाण और युक्तियों के बल से तुमको षड्दर्शनों से बहिर्भूत सिद्ध कर दिया है। अगर तुम्हारी कोई शक्ति है तो पौषधशाला के द्वार पर चिपकाये गये अपने शास्त्रार्थ पत्र के समर्थन के लिए कुछ सप्रमाण बोलो। पढ़ी हुई पुस्तकों के पाठ की यथावत् आवृत्ति करने में तो हम भी समर्थ हैं।" इसके बाद उपाध्याय जी की आज्ञा पाकर धर्मरुचि गणि, वीरप्रभ गणि और सुमति गणि ये तीनों मुनि श्री जिनवल्लभसूरि जी महाराज की बनाई हुई चित्रकूटीयप्रशस्ति, संघपट्टक, धर्मशिक्षा आदि संस्कृत प्रकरणों का पाठ ऊँचे स्वर से करने लगे। इनको धाराप्रवाह रूप धड़ा-धड़ संस्कृत पाठ का उच्चारण करते हुए देखकर वहाँ पर उपस्थित सभी राजा रईस लोग कहने लगे-"ओ हो! ये तो सभी पण्डित हैं।"
संविग्न साधु-साध्वी परम्परा का इतिहास
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