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धर्मरुचि गणि ने यह समस्त वृत्तान्त पूज्यश्री के आगे निवेदन किया। वहाँ पर पूज्यश्री के पास उपस्थित ठ० विजय नामक श्रावक ने शास्त्रार्थ सम्बन्धी बात सुनकर अपने नौकर को उस पत्र चिपकाने वाले विद्यार्थी के पीछे भेजा और कहा कि-"तुम इस लड़के के पीछे-पीछे जाकर जाँच करो कि यह लड़का किस-किस स्थान पर जाता है। हम तुम्हारे पीछे ही आ रहे हैं।" इस प्रकार आदेश पाकर वह नौकर उस कार्य का अनुसंधान करने के लिए लड़के के चरण चिह्नों को देखता हुआ चला गया।
अनेक पण्डित प्रकाण्डों को शास्त्रार्थ में पछाड़ने वाले प्रगाढ़ विद्वान यशस्वी श्री जिनपतिसूरि जी ने अपने आसन से उठ कर अपने अनुयायी मुनिवरों को कहा कि-"शीघ्र वस्त्र धारण करो और तैयार हो जाओ। शास्त्रार्थ करने को चलना है, स्वयं भी तैयार हो गये।" ____ महाराज को जाने के लिए तैयार हुए देखकर मुनि जिनपालोपाध्याय और ठा० विजयसिंह श्रावक कहने लगे-"भगवन्! यह भोजन का समय है, साधु लोग आहार वहोर करके आ गये हैं इसलिए आप पहले गौचरी करें। बाद में वहाँ जायें।" उन लोगों के अनुरोध से महाराज भोजन करके उठे।
श्री जिनपालोध्याय जी ने महाराज के चरणों में वन्दना करके प्रार्थना की-प्रभो! मनोदानंद पण्डित को जीतने के लिए आप मुझे भेजें। आपकी कृपा से मैं उसे जीत आऊँगा। भगवन्! प्रत्येक साधारण मनुष्य से आप यदि इस प्रकार वाद-प्रतिवाद करने को स्वयं उठेंगे तो फिर हम लोगों को साथ लाने का क्या उपयोग है? उस मामूली पं० मनोदानंद को हराने के लिए आप इतने व्यग्र क्यों हो गये हैं। कहा भी है
कोपादेकतलाघातनिपातमत्तदन्तिनः।
हरेर्हरिणयुद्धेषु कियान् व्याक्षेपविस्तरः॥ [क्रोधवश अपने चरण की एक चपेट से मस्त हाथियों को मार डालने वाले सिंह को हरिणों के साथ युद्ध करने में विशेष व्यग्र होने की आवश्यकता? यानि बिल्कुल नहीं है।]
राजनीति में भी पहले पैदल सेना युद्ध करती है और बाद में रण-विद्या विशारद सेनापति लड़ा करते हैं।
पूज्यश्री ने कहा-उपाध्याय जी? आप जो कहते हैं वह यथार्थ है, किन्तु पण्डित की योग्यता कैसी है यह मालूम नहीं।
उपाध्याय जी ने कहा-पण्डित कैसा भी क्यों न हो, सब जगह आपकी कृपा से विजय सुलभ है। पूज्यश्री ने कहा-कोई हर्ज नहीं हम भी चलते हैं, किन्तु बोलना तुम्हीं।
उपाध्याय जी ने कहा-महाराज! आपकी उपस्थिति में लज्जा वश मेरी जबान बोलने में बराबर नहीं चलेगी। इसलिए आपका यहीं विराजना अच्छा है।
संविग्न साधु-साध्वी परम्परा का इतिहास
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