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श्री सुखसागरजी के समुदाय की साध्वी परम्परा का इतिहास-२
जिस प्रकार शिथिलाचारपरिहारी क्रियोद्धारक खरतरगच्छीय संविग्न साधु परम्परा का प्रारम्भ २०वीं शताब्दी में उपाध्याय प्रीतिसागर गणि से मानकर उनकी परम्परा का पूर्व में इतिवृत्त/परिचय दिया गया है उसी प्रकार साध्वी वर्ग ने भी इन मुनि-वृन्दों के साथ क्रियोद्धार अवश्य किया होगा, किन्तु इसका कोई प्रामाणिक उल्लेख प्राप्त नहीं है। क्रियोद्धारिका के रूप में सर्वप्रथम २०वीं शताब्दी में उद्योतश्री जी का ही नाम प्राप्त होता है। वर्तमान में समुदाय की परम्परा भी उद्योतश्री जी की ही शिष्यापरम्परा है, अतः उद्योतश्री जी से ही परिचय प्रस्तुत किया जा रहा है।
साध्वी उद्योतश्री
इनका नाम नानीबाई और निवास स्थान फलौदी था। बाल्यावस्था में ही फलौदी के ही रतनचन्दी गोलेछा के साथ इनका विवाह हुआ था। अशुभकर्मोदय के कारण इनके पति का अचानक स्वर्गवास हो गया, इससे इनका मन संसार से विरक्त हो गया। इन्होंने प्रतिज्ञा की थी कि 'मक्सी तीर्थ की यात्रा करने के पश्चात् ही घी का प्रयोग करूँगी।' तीर्थ यात्रा हेतु ही जोधपुर आईं। वहीं संयोग से राजसागर जी महाराज की शिष्या रूपश्री जी से इनका मिलना हुआ और इनमें विरक्ति की भावना जागृत हो गई। तीन पुत्र, पाँच पौत्र और तीन पौत्रियाँ आदि परिवार के स्नेह बन्धन से मुक्त होकर सम्वत् १९१८ के माघ सुदि पाँचम को साध्वी राजश्री के पास दीक्षा ग्रहण की, नाम उद्योतश्री रखा गया। सम्वत् १९१९ का जोधपुर, सम्वत् १९२० का अजमेर, १९२१ का किशनगढ़ और १९२२ का चातुर्मास फलौदी में किया। फलौदी में ही इन्हें सद्गुरु का संयोग मिला। सद्गुरु थे क्रियोद्धारक सुखसागर जी। सुखसागर जी की उत्कृष्ट क्रिया-पात्रता देखकर उद्योतश्री ने भी क्रियोद्धार किया और उनकी आज्ञानुयायिनी बन गईं।
दीक्षा के पश्चात् भी कई वर्षों तक पूर्वगृहीत अभिग्रह पूर्ण नहीं हुआ था, तब तक आपने घृत का प्रयोग नहीं किया था। कई वर्षों बाद मक्सी तीर्थ की यात्रा सानन्द की और इनका अभिग्रह पूर्ण हुआ। इन्होंने ५ साध्वियों को दीक्षा देकर अपने साध्वी समुदाय में वृद्धि की। पाँचों साध्वियाँ थींधनश्री, लक्ष्मीश्री, मगनश्री, पुण्यश्री और शिवश्री। लक्ष्मीश्री जी को सम्वत् १९२४ में और मगनश्री जी को सम्वत् १९३० में दीक्षा प्रदान की गयी थी। ___ साध्वियों को शिक्षा-दीक्षा देती हुई अनेक स्थानों पर विचरण करती रहीं। सम्वत् १९४० के बाद फलौदी में ही आपका स्वर्गवास हुआ।
इनकी शिष्याओं लक्ष्मीश्री जी और शिवश्री जी की शिष्याओं में अत्यधिक मात्रा में वृद्धि होने के कारण उद्योतश्री जी की परम्परा दो भागों में विभक्त हो गईं। एक लक्ष्मीश्री जी की परम्परा और दूसरी शिवश्री जी की परम्परा। ।
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खरतरगच्छ का इतिहास, प्रथम-खण्ड
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