________________
आचार्य श्री जिनचन्द्रसूरि आचार्य श्री जिनचन्द्रसूरि जी बीकानेर निवासी बच्छावत मुंहता रूपचन्द्र के पुत्र थे। इनकी माता का नाम केसरदेवी था। इनका जन्म सं० १८०९ में कल्याणसर नामक गाँव में हुआ था। इनका मूल नाम अनूपचन्द्र था। सं० १८२११ माघ सुदि ८ को पादरू में आपकी दीक्षा हुई और दीक्षा नाम उदयसागर था। सं० १८३४ के आश्विन वदि १३ सोमवार को शुभ लग्न में गूढ़ा नगर में कूकड़ चौपड़ा गोत्रीय दोसी लखा साह कृत उत्सव में आपका सूरि पदाभिषेक हुआ। तदनन्तर आप महेवापुर-नाकोड़ाजी के चैत्यों की वन्दना कर, श्री गौड़ी पार्श्वनाथ की यात्रा कर क्रमशः जैसलमेर में लौद्रवा चिन्तामणि पार्श्वनाथ की यात्रा की। जैसलमेर में आवश्यकादि योग क्रियाएँ की। तदनन्तर आपने अयोध्या, काशी, चन्द्रावती, चम्पापुरी, मकसूदाबाद, सम्मेतशिखर, पावापुरी, राजगृह, मिथिला, दुतारा-पार्श्वनाथ, क्षत्रिय कुण्ड ग्राम, काकंदी, हस्तिनापुर आदि की यात्रा की। उस समय लखनऊ नगर में नाहटा गोत्रीय सुश्रावक राजा वच्छराज ने तीन चातुर्मास बड़े महोत्सव पूर्वक कराये। वहाँ बहुत फैले प्रतिमोत्थापक (स्थानकवासी) निह्नवमार्ग का आचार्यश्री ने बड़ी युक्ति से निराकरण किया। अनेक श्रद्धालुजनों को पुनः सन्मार्ग में लाये। आपकी बहुत ख्याति हुई। उस नगर के समीपस्थ बगीचे में राजा साहब ने दादा श्री जिनकुशलसूरि का स्तूप-निर्माण कराया। पूरब देश से आप राजस्थान की ओर लौट कर जयपुर, पाली होते हुए गुजरात पधारे। पाटण, अहमदाबाद में विचरण कर शत्रुजय, गिरनार आदि तीर्थों की यात्रा की। पालीताना में विरोधियों के साथ बड़ा विवाद हुआ, उसमें श्री गुरुदेव की कृपा से आपकी विजय हुई, विपक्षी लोग परास्त होकर भाग निकले। वहाँ के राजा और प्रजा ने आपका बहुत अधिक सम्मान किया। आचार्यश्री की महिमा चारों ओर खूब फैल गई। एक वर्ष बाद मोरवाड़ा गाँव में एक लक्ष मनुष्यों से भी अधिक संख्या वाला संघ जब श्री गौड़ी पार्श्वनाथ की यात्रा करने आया तब वहाँ के मंत्री आदि महान् व्यक्तियों के कहने पर संघस्थित आचार्य और आपका परस्पर मेल हो गया।
आपने राजस्थान, उत्तरप्रदेश, बंगाल व गुजरात में विचरण कर १७ नंदियों में दीक्षा दी। आपने सब मिलकर ३९१ व्यक्तियों को दीक्षा दी। जिसमें २६ लखनऊ, १३ पाटण, ५ अहमदाबाद में हुई अवशिष्ट सभी राजस्थान में हुई। सं० १७५६ में आप अंतरिक्ष पार्श्वनाथ तीर्थ की यात्रा कर सूरत पधारे। इसी वर्ष पूना की दादावाड़ी में श्री जिनकुशलसूरि जी के चरणों की प्रतिष्ठा की। सं० १८५०-५१ में आपने चूरू में मन्दिर व दादावाड़ी में दादा साहब के चरणों की प्रतिष्ठा की व सं० १८४० में जैसलमेर में गुरु श्री जिनलाभसूरि जी के चरणों की प्रतिष्ठा की। सं० १८४९ में नाल में श्री अमरविजय के चरण प्रतिष्ठित किए।
इस प्रकार परम सौभाग्यशाली, सकल विश्व के मनोहर्ता, सब सिद्धान्तों के पाठी, सर्वत्र विख्यात कीर्ति वाले, जंगम युगश्रेष्ठ, वाणी से बृहस्पति को जीतने वाले बृहत्खरतर गच्छेश्वर श्री जिनचन्द्रसूरि जी सूरत बंदर में सं० १८५६ मिती ज्येष्ठ शुक्ला तृतीया को देवलोक गए।
卐卐 १. सं० १८२२ मण्डोवर-पाठान्तर पट्टावली में है। हमने दीक्षा नंदी सूची से लिखा है जो प्रामाणिक है।
संविग्न साधु-साध्वी परम्परा का इतिहास
(२४५)
Jain Education International 2010_04
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org