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भाई विधि विधान के लिये आये। दादा जिनदत्तसूरि की प्रतिमा एवं मणिधारी श्री जिनचन्द्रसूरि व श्री जिनचन्द्रसूरि के चरणों की प्रतिष्ठा बड़े समारोहपूर्वक हुई।
सं० २०१० का चातुर्मास सूरिजी ने मांडवी किया। मिगसिर वदि २ को धर्मनाथ जिनालय पर ध्वजा दण्ड चढ़ाया गया, उत्सव हुए। मोटा आसंबिया में मन्दिर का शताब्दी महोत्सव हुआ। भुज की दादावाड़ी में हेमचंद भाई के परिवार की ओर से नवीन जिनालय के निर्माण हेतु अर्पित भूमि पर सं० २०११ वैशाख सुदि १२ को सूरिजी के कर-कमलों से खातमुहूर्त हुआ, तदनन्तर आपने अंजार चातुर्मास किया।
चातुर्मास के पश्चात् भद्रेश्वर तीर्थ की यात्रा कर आपश्री मांडवी पधारे। वहाँ की विशाल दादावाड़ी में श्री जिनदत्तसूरि की प्रतिमा विराजमान करने का उपदेश दिया। पटेल वीकमसी राघव जी ने इस कार्य को सम्पन्न करने की अपनी भावना व्यक्त की। सूरिजी का शरीर स्वस्थ था, केवल आँख का मोतिया उतरता था परन्तु एकाएक सं० २०११ माघ वदि ८ को अर्धांग व्याधि हो गई और माघ सुदि ९ को समाधि पूर्वक स्वर्गवासी हो गये। आपने अपने जीवन में शुद्ध चारित्र पालन करते हुये जिन शासन और गच्छ की खूब प्रभावना की थी।
श्री भद्रमुनि जी अपरनाम सहजानन्द जी आप प्राकृत और संस्कृत भाषा के प्रखर विद्वान् होने के साथ-साथ योग साधना में तल्लीन रहते थे। इसी कारण आपने परम्परागत वेश-भूषा का त्याग कर दिया और सहजानन्द जी के नाम से विख्यात हुए। कर्णाटक प्रान्त में स्थित हम्पी को अपना केन्द्र बनाकर वहीं गुफा में ध्यान-साधना में निमग्न रहने लगे। आपका निधन भी वहीं हुआ। कहा जाता है कि ये एकावतारी थे। इनके विषय में विस्तृत विवरण के लिये भंवरलाल जी नाहटा रचित सहजानन्दघनचरियं द्रष्टव्य है।
(५. उपाध्याय श्री लब्धिमुनि
महान् प्रतापी श्री मोहनलाल जी महाराज के वचनामृत से विरक्त होकर अपने मित्र श्री देवी भाई (जिनरत्नसूरि) के साथ दीक्षा लेने वाले लधा भाई का जन्म कच्छ के मोटी खाखर गाँव में हुआ था। आपके पिता दनाभाई देढ़िया बीसा ओसवाल थे। सं० १९३५ में जन्म लेकर संस्कार युक्त माता-पिता की छत्र छाया में बड़े हुए। आपके छोटे भाई नानजी और बहिन का नाम रतन बाई था। सं० १९५८ में पिताजी के साथ बम्बई जाकर लधा भाई सेठ रतनसी की दुकान भायखला में काम करने लगे। यहाँ से थोड़ी दूर सेठ भीमसी करमसी की दुकान थी। उनके ज्येष्ठ पुत्र देवजी के साथ आपकी घनिष्टता हो गई क्योंकि वे धार्मिक संस्कार वाले व्यक्ति थे। सं० १९५८ में प्लेग की बीमारी से सेठ रतनसी भाई चल बसे। उनका स्वस्थ शरीर देखते-देखते विलीन हो जाना दोनों मित्रों के वैराग्य का पोषक बना। संयोगवश परम पूज्य मोहनलाल जी महाराज का वहाँ चातुर्मास था, दीक्षा देने की प्रबल प्रार्थना की।
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खरतरगच्छ का इतिहास, प्रथम-खण्ड
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