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जिनभद्रसूरिशाखा में पं० पद्महंस के पौत्र शिष्य एवं सत्यविनय के शिष्य वृद्धिचन्द्र जी हुए। इनका जन्म नाम वर्धी ( वृद्धिचन्द्र) रहा और ये आजीवन वृद्धिचन्द्र के नाम से ही जाने गये । वि०सं० १९३२ में जिनमुक्तिसूरि ने जैसलमेर में इन्हें दीक्षा प्रदान की थी। ये बड़े शान्त स्वभावी और मिलनसार प्रकृति के थे। संगीत के भी ये अच्छे ज्ञाता थे। ये आजीवन जैसलमेर में रहे। इनके हस्तलिखित ग्रन्थों का सम्पूर्ण संग्रह इन्हीं के शिष्य पं० लक्ष्मीचन्द्र यति ने आगम प्रभाकर मुनि पुण्यविजय जी की प्रेरणा से लालभाई दलपतभाई भारतीय संस्कृति विद्या मन्दिर, अहमदाबाद को दे दिया | वृद्धिचन्द्र जी के पूर्वज अत्यन्त चमत्कारी थे। उन्हीं के मार्गनिर्देशन में जैसलमेर के पटवाबाफना परिवार भविष्य में समृद्धशाली हुए ।
इसी शाखा में हुए उपा० लक्ष्मीप्रधान के शिष्य उपा० मुक्तिकमल ने खरतरगच्छीय विधिविधानों और पूजाओं से सम्बन्धित रत्नसागर नामक एक विशाल ग्रन्थ दो भागों में प्रकाशित किया । इनके शिष्य जयचन्द्र जी हुए। इनका दीक्षा नाम जयपद्म था । इन्हें बीकानेर में दीक्षा प्राप्त हुई थी । इनके पास हस्तलिखित ग्रन्थों का विशाल संग्रह था । उक्त संग्रह को इन्होंने श्रीपूज्य जिनविजयेन्द्रसूरि और पद्मश्री मुनिजिनविजय जी की प्रेरणा से राजस्थान प्राच्य विद्या प्रतिष्ठान - बीकानेर को सप्रेम भेंट कर दिया। ग्रन्थों को ग्रहण करते समय जिनविजयेन्द्रसूरि जी और जयचन्द्र जी के साथ राजस्थान प्राच्य विद्या प्रतिष्ठा ने जो अनुबंध किया था उसका पूर्ण रूप से पालन प्रतिष्ठान की ओर से आज तक नहीं हो सका है।
जिनभद्रसूरिशाखा में ही हुए उपाध्याय दानसागर गणि के पौत्र शिष्य उपा० हितवल्लभ को जिनसौभाग्यसूरि ने वि०सं० १९०९ में दीक्षा प्रदान की थी। इनका मूल नाम हिमतू जी था । इन्होंने बहुत प्रयत्न कर बीकोनर के बड़े उपाश्रय में बृहत्ज्ञानभंडार की स्थापना की थी और उसमें उपाध्याय दानसागर जी का संग्रह भी सम्मिलित किया था । महो० दानसागर के दूसरे प्रशिष्य विवेकवर्धन हुए । इनकी दीक्षा जिनहंससूरि द्वारा सं० १९३४ में बीकानेर में हुई थी। इनके शिष्य जयलाभ को जिनचारित्रसूरि ने वि०सं० १९६६ में दीक्षा दी थी। इनका जन्म नाम जतनलाल था और ये आजीवन इसी नाम से प्रसिद्ध रहे। ये सुप्रसिद्ध स्वतंत्रता सेनानी थे । छत्तीसगढ़ के स्वतंत्रता सेनानियों में त्रिपुटी मानी जाती थी - रविशंकर शुक्ल, यति जतनलाल और महन्त लक्ष्मीनारायण । ये कई बार जेल भी गये। देश के आजाद होने पर जब प्रथम आम चुनाव हुए, उस समय इन्हें लोकसभा का टिकट दिया गया परन्तु इन्होंने स्वयं को यति बतलाते हुए उसे स्वीकार नहीं किया । इनका कार्यक्षेत्र महासमुंद रहा । यहीं इन्होंने अपने गुरु के नाम से विवेकवर्धन आश्रम की स्थापना की। आज से लगभग १० वर्ष पूर्व इनका निधन हुआ।
संविग्न साधु-साध्वी परम्परा का इतिहास
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