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पास प्रस्ताव आने पर उन्होंने मणिसागर जी को माननीय गुलाबचंद जी ढढ्ढा और धनराज जी बोथरा के साथ रेल में सम्मेतशिखर जी भेजा। आप तरुण और धुन के पक्के थे। गुरु आशीर्वाद के बल पर सम्मेतशिखर जी पर जाकर एक माह तक अनुष्ठान किया। उससे श्वे० समाज को पूर्ण सफलता मिली। समाज में आपकी खूब प्रतिष्ठा बढ़ी। कलकत्ता संघ ने कलकत्ता बुलाया और छः वर्ष वहाँ बिताये। अनुष्ठान के लिए रेल में शिखर जी आने का दण्ड-प्रायश्चित्त माँगा तो महामुनि कृपाचंद जी, शिवजीराम जी आदि खरतरगच्छ के एवं तपागच्छ के मुनियों की ओर से निर्णय मिला कि "यह दण्ड देने का कार्य नहीं अपितु शासन-प्रभावना का कार्य है। इसमें साधु जीवन की उपवासादि व इर्यापथिकी नित्य क्रिया ही पर्याप्त है।"
सं० १९६६ में मुनि विद्याविजय जी ने "खरतरगच्छ" वालों की पर्युषणादि क्रियाएँ लौकिक पंचांगानुसार होने से अशास्त्रीय हैं, इस विषय का विज्ञापन निकाला। राय बद्रीदास जी आदि खरतरगच्छीय श्रावकों ने आपसे इस भ्रम पूर्ण प्रचार को रोकने के लिए विद्वत्तापूर्ण उत्तर देने की प्रार्थना की। आपने शास्त्र प्रमाण के हेतु ग्रन्थ सुलभ करने के लिए लम्बी सूची दी। बद्रीदास जी ने तत्काल पाटण, खंभात आदि स्थानों से प्राचीन ताड़पत्रीय और कागज की हस्तलिखित प्रतियाँ मंगा कर प्रस्तुत की। मणिसागर जी ने पहले तो एक सारगर्भित छोटा लेख लिखकर जिनयशःसूरि जी, शिवजीराम जी, कृपाचंद जी एवं प्रवर्त्तिनी पुण्यश्री जी आदि को भेजा। जब सब ने मुक्त कण्ठ से प्रशंसा की तो आगे चलकर वह एक हजार पृष्ठों का "बृहत्पर्युषणानिर्णय" ग्रन्थ रूप में प्रकाशित हुआ।
कलकत्ता से विचरते हुए बम्बई पधारने पर सं० १९७२ में श्री जिनकृपाचंद्रसूरि जी ने सुमतिसागर जी को उपाध्याय पद एवं मणिसागर जी को पण्डित पद से विभूषित किया। तपागच्छ के कई महारथियों श्री सागरानन्दसूरि, विजयवल्लभसूरि आदि ने बम्बई में कलकत्ता वाले विवाद को उठाने के साथ-साथ प्रभु महावीर के षट् कल्याणक मान्यता का भी विरोध किया। दोनों ओर से चालीसों पर्चे निकले। मणिसागर जी द्वारा शास्त्रार्थ का आह्वान करने पर कोई उनका सामना न कर सका, जिससे खरतरगच्छ का सिक्का जम गया और कोई खरतरगच्छ की मान्यता को अशास्त्रीय कहने का दुस्साहस न कर सका।
मणिसागर जी के पाण्डित्य की सौरभ सर्वत्र व्याप्त हो गई थी। देवद्रव्य के विषय में सागरानन्दसूरि जी और विजयधर्मसूरि जी के मध्य मतभेद-विवाद चलता था। मणिसागर जी भी इन्दौर पधारे और विजयधर्मसूरि जी से पत्र व्यवहार किया। जब टालमटोल होने लगी तो आपने देव द्रव्य निर्णय नामक पुस्तिका प्रकाशित की। इन्दौर में स्थानकवासी चौथमल जी के शिष्य ने "गुरु गुण महिमा" पुस्तिका में मुखवस्त्रिका के सम्बन्ध में विवाद खड़ा किया और उसमें मूर्तिपूजक समाज की निन्दा की। श्री जिनकृपाचन्द्रसूरि जी वहीं पर थे, उपधान तप चल रहा था। पूर्णाहुति पर सुमतिसागर जी को महोपाध्याय और मणिसागर जी को पंन्यास पद दिया गया। स्थानकवासी समाज की ओर से आचार्यश्री से पुस्तक का उत्तर माँगा गया तो शान्तमूर्ति आचार्यश्री ने पं० मणिसागर जी की ओर साभिप्राय देखा। उन्होंने
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संविग्न साधु-साध्वी परम्परा का इतिहास
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