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महो० गुणविनय के शिष्य मतिकीर्ति हुए जिनके द्वारा रचित गुणकित्वषोडशिका, अघटकुमार चौपाई (वि०सं० १६७४) और धर्मबुद्धिरास (१६९७) आदि रचनायें उपलब्ध हुई हैं। ___ मतिकीर्ति के शिष्य सुमतिसिन्धुर हुए जिन्होंने वि०सं० १६९६ में गौड़ीपार्श्वस्तवन की रचना
की।
सुमतिसिन्धुर के शिष्य कीर्तिविलास द्वारा रचित बड़ी संख्या में स्तवनादि प्राप्त होते हैं।
प्रमोदमाणिक्य के दूसरे शिष्य क्षेमसोम हुए जिनके प्रशिष्य विद्याकीर्ति द्वारा नरवर्मचरित (वि०सं० १६६४), धर्मबुद्धिमंत्रिचौपाई (१६७२), सुभद्रासती चौपाई (वि०सं० १६७५) आदि कृतियाँ मिलती
क्षेमकीर्ति परम्परा में ही हुए कनककुमार के शिष्य कनकविलास ने वि०सं० १६३८ में देवराजवच्छराज चौपाई की रचना की।
क्षेमकीर्ति की परम्परा में महो० सहजकीर्ति संस्कृत साहित्य के प्रौढ़ विद्वान् थे। गच्छनायक श्री जिनराजसूरि द्वारा प्रतिष्ठित थाहरूशाह कारित लौद्रवा पार्श्वनाथ की प्रतिष्ठा के समय आप उपस्थित थे। कल्पसूत्र टीका कल्पमंजरी आदि इनकी विभिन्न कृतियाँ मिलती हैं। शतदलकमलगर्भित पार्श्वनाथस्तोत्र इनकी अमर रचना है जो लौद्रवा पार्श्वनाथ मन्दिर में आज भी ताम्रपत्र पर विद्यमान
शाखाप्रवर्तक उपाध्याय क्षेमकीर्ति के एक शिष्य तपोरन हुए जिनके द्वारा रचित षष्टिशतकटीका (वि०सं० १५०१) नामक कृति मिलती है। इन्हीं की परम्परा में आगे चलकर लक्ष्मीवल्लभ उपाध्याय हुए जिन्होंने वि०सं० १७५२ में रत्नहासचौपाई, उत्तराध्ययनटीका, कल्पद्रुमकलिका आदि की रचना की।
तपोरन के एक शिष्य भुवनसोम हुए जिनकी परम्परा में १७वीं शताब्दी में वाचक शांतिहष हुए। अनेक ग्रन्थों एवं स्तवनों के रचनाकार जिनहर्ष इन्हीं के शिष्य थे। स्व० अगरचन्द जी नाहटा एवं भंवरलाल जी नाहटा ने अपनी कृति जिनहर्षग्रन्थावली में इनकी सभी प्रमुख कृतियों का समीक्षात्मक वर्णन करते हुए अन्य सभी रचनाओं को भी प्रकाशित किया है। इनमें मौनएकादशी बालावबोध, अजितसेनकनकवतीरास (वि०सं० १७५१), अवन्तिसुकुमालरास (१७४१), दीपमलिकाकल्प (वि०सं० १७५१), कुमारपाल रास आदि प्रमुख हैं। वि०सं० १७२२ में जिनरत्नसूर के शिष्य जिनचन्द्रसूरि के कर-कमलों से हेमप्रमोद के शिष्य रंगविमल की दीक्षा हुई। ये भी इसी क्षेमकीर्तिशाखा के ही थे।
अघटराजर्षिचौपाई (वि०सं० १६६७) के कर्ता भुवनकीर्ति गणि, सुदर्शनश्रेष्ठीरास (वि०सं० १६६१), मंगलकलशचौपाई (वि०सं० १८३२), इलापुत्ररास (वि०सं० १८३९), तेजसारचौपाई (वि०सं० १८३८) आदि के रचनाकार रत्नविमल भी क्षेमकीर्ति शाखा के ही थे।
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खरतरगच्छ का इतिहास, प्रथम-खण्ड
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