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४. बेगड़ शाखा
गुर्वावलि में जिनलब्धिसूरि के पट्टधर आचार्य जिनचन्द्रसूरि तक का क्रम एक समान ही है। जिनचन्द्रसूरि ' के पट्टधर भट्टारक शाखा की ओर जिनोदयसूरि हुये । वे माल्हू गोत्रीय थे, इसी से बेगड़ शाखा वाले उनकी परम्परा को माल्हू शाखा भी कहते हैं और आचार्य जिनेश्वरसूरि से बेगड़ शाखा का आविर्भाव हुआ । इस शाखा के कतिपय नियमानुसार भट्टारक पद पर छाजेड़ गोत्रीय ही अभिषिक्त होता था एवं प्रत्येक सातवें (छठे ) पट्ट पर स्थापित आचार्य का नाम जिनेश्वरसूरि ही रखा जाता था। इस (बेगड़) शाखा की परम्परा इस प्रकार है
१. श्री जिनेश्वरसूरि
२. श्री जिनशेखरसूरि
३. श्री जिनधर्मसूरि
४. श्री जिनचन्द्रसूरि ५. श्री जिनमे सूरि
६. श्री जिनगुणप्रभसूरि
श्री जिनेश्वरसूरि
८. श्री जिनचन्द्रसूरि
७.
९. श्री जिनसमुद्रसूरि
१०.
श्री जिनसुन्दरसूरि
११. श्री जिनोदयसूरि
१२. श्री जिनचन्द्रसूरि
१३. श्री जिनेश्वरसूरि
१४.
१५. श्री जिनक्षेमचन्द्रसूरि
१६. श्री जिनचन्द्रसूरि
१. आचार्य श्री जिनेश्वरसूरि
आप छाजहड़ गोत्रीय साह झांझण की सती धर्मपत्नी झबकू देवी की रत्नकुक्षि से उत्पन्न हुये । आप कई बाधाओं का सामना करके गुरु श्री जिनचन्द्रसूरि के पाट पर विराजे । आपने छः मास तक बाकुला और एक लोटी जल लेकर वाराही देवी को आराधना द्वारा प्रत्यक्ष किया । धरणेन्द्र भी आपके प्रत्यक्ष था। आपने सं० १४०९ में स्वर्णगिरि में महावीर स्वामी के मन्दिर की प्रतिष्ठा तथा सं० १४११ में श्रीमाल नगर में मन्दिर की प्रतिष्ठा की। सं० १४१४ में आपने आचार्य पद प्राप्त किया । अणहिल्लवाड़ (पाटण) में खान का मनोरथ पूर्ण करके महाजन बन्दियों को छुड़वाया । राजनगर में विहार करके
१. उ० क्षमाकल्याण जी कृत पट्टावली के अनुसार आ० जिनचन्द्रसूरि के पट्टधर श्री जिनोदयसूरि ने अपने पट्ट पर वाचक धर्मवल्लभ को बिठाने का विचार किया था, किन्तु पश्चात् कुछ कारणों से यह विचार स्थगित कर जिनराजसूरि को पट्ट पर बिठाया। इससे वाचक जी रुष्ट हो गए और जैसलमेरी संघ की सहायता प्राप्त कर पृथक् हो गए। आपके कुटुम्बी बेगड़ छाजहड़ थे इसलिये इनका समुदाय सं० १४२२ से बेगड़ नाम से ख्यात हुआ, लिखा है । वा० धर्मवल्लभ गणि ही जिनेश्वरसूरि हुए।
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खरतरगच्छ का इतिहास, प्रथम खण्ड
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